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संदेश

पीड ( दर्द ) Pain

बहुत दिनों से देखने में आ रहा था की कुँवरी का अनमने से दिख रहे थे ,खुद में खोये हुये ,खुद से बातें करते हुये ,जबकि उनका स्वभाव वैसा बिल्कुल नही था ,हँसमुख ओर मिलनसार थे वो ,पता नही अचानक उनके अंदर ऐसा बदलाव कैसे आ गया था, समझ नही आ रहा था के आखिर हुआ क्या।  कुंवरी का किस कदर जिंदादिल थे ये किसी से छुपा नही ठहरा ,उदास वो किसी को देख नही सकते थे ,कोई उदास या परेशान दिखा नही के कुंवरी का उसके पास पहुँचे नही ,जब तक जाते ,जब तक सामने वाला परेशानी से उबर नही जाता था ,अब ऐसे जिंदादिल इंसान को जब उदास परेशान होते देखा तो ,सबका परेशान होना लाजमी था ,पर कुँवरी का थे के ,किसी को कुछ बता नही रहे थे ,बस क्या नहा क्या नहा कह कर कारण से बचने की कोशिश कर रहे थे ,अब तो सुबह ही घर से बकरियों को लेकर जंगल की तरफ निकल पड़ते ओर साँझ ढलने पर ही लौटते ,ताकि कोई उनसे कुछ ना पूछ पाये ,पता नही क्या हो गया था उन्हें ,गाँव में भी उनका किसी से झगड़ा नही हुआ था ,ओर घर में कोई लड़ने वाला हुआ नही ,काखी के जाने के बाद अकेले ही रह गये थे ,एक बेटा था बस ,जो शहर में नौकरी करता था ,उसके बच्चे भी उसी के साथ रहते थ
हाल की पोस्ट

बसंती दी

बसन्ती दी जब 15 साल की थी ,तब उनका ब्या कर दिया गया ,ससुराल गई ओर 8 साल बाद एक दिन उनके ससुर उन्हें उनके मायके में छोड़ गये ,ओर फिर कोई उन्हें लेने नही आया ,बसन्ती दी के बौज्यू कई बार उनके ससुराल गये ,पर हर बार उनके ससुराल वालों ने उन्हें वापस लेने से ये कहकर  इंकार कर दिया की ,बसन्ती बाँझ है ओर  ये हमें वारिस नही दे सकती तब से बसन्ती दी अपने पीहर ही रही।  बाँझ होने का दँश झेलते हुये बसन्ती दी की उम्र अब 55 के लगभग हो चुकी थी ,उनके बौज्यू ने समझदारी दिखाते हुये 10 नाली जमीन ओर एक कुड़ी उनके नाम कर दी थी ,ताकि बाद में उनको किसी भी प्रकार से परेशानी ना हो ,ओर वो अपने बल पर अपनी जिंदगी जी सके। बसन्ती दी ने उस जमीन के कुछ हिस्से में फलों के पेड़ लगा दिये ओर बाकि की जमीन में सब्जियाँ इत्यादि लगाना शुरू किया ,अकेली प्राणी ठहरी तो गुजारा आराम से चलने लगा ,भाई बहिनों की शादियाँ हो गई ,भाई लोग बाहर नौकरी करने लगे ,वक़्त बीतता चला गया। बसन्ती दी शुरू से ही मिलनसार रही थी ,इसके चलते गाँव के लोग उनका सम्मान करते थे ,ओर खुद बसन्ती दी भी ,लोगों की अपनी हैसियत अनुसार सहायता भी कर

देवता का न्याय

थोकदार परिवारों के ना घर में ही नही ,अपितु पूरे गाँव में दहशत छाई हुई थी ,कुछ दिनों से थोकदार खानदान के सारे घरों में ,घर के सदस्यों को पागलपन के जैसे लक्षण देखने को मिल रहे थे ,यहाँ तक की गाय भैंसों ने भी दूध देना बंद कर दिया था ,किसी को समझ नही आ रहा था की आखिर ये हो क्या रहा है। पहाड़ में अगर ऐसा होना लगे तो ,लोग देवी देवताओं का प्रकोप मानने लगते हैं ,ओर उनका अंतिम सहारा होता है लोक देवताओं का आवाहन ,इसलिये थोकदार परिवारों ने भी जागर की शरण ली। खूब जागा लगाई काफी जतन किये ,पर कौन था किसके कारण ये सब हो रहा था ,पता नही लग पा रहा था ,जिसके भी आँग ( शरीर ) में अवतरित हो रहा था ,वो सिर्फ गुस्से में उबलता दिखाई दे रहा था ,पर बोल कुछ नही रहा था ,लाख जतन कर लिये थे ,पर समस्या ज्यों की त्यों थी ,गाँव वाले समझ नही पा रहे थे की आखिर थोकदार परिवार को इस तरह परेशान कौन कर रहा है ,ओर तो ओर जगरिये उससे कुछ बुलवा नही पा रहे हैं ,अंत में गाँव में आया हुआ एक मेहमान बोला मेरे गाँव में एक नौताड़ ( नया ) अवतरित हुआ है ,उसे बुला कर देखो क्या पता वो कुछ कर सके ,थोकदार परिवार ने दूसर

ग्वेल ज्यूँक कृपा

दीवाली का दिन था ,ओर गाँव का बाजार दीवाली के सामानों से सज चुका था ,लोग बाग अपनी अपनी हैसियत के अनुसार खरीददारी कर रहे थे। अगर कोई कुछ नही खरीद रहा था तो वो था दीवान दा ,काफी दिनों से लकड़ी के चिरान का काम बंद था ,इसके चलते दीवान दा बेरोजगार हो चला था। दीवान दा को समझ नही आ रहा था की आखिर वो करे तो करे क्या ,चलो राशन पानी तो उधार फिर भी मिल जायेगा ,पर बच्चों के लिये पटाखे ओर कपड़े कौन उधार देगा ,दो साल से कपड़े भी तो नही बना पाया था वो बच्चों के लिये। दीवान दा को ये दीवाली का त्यौहार जैसे काटने को आ रहा था ,घर में दिया तक जलाने को तेल नही था ,धूप बास भी कैसे उठाता ,लगडा ,पू ,बड बनता था  वैसे तो हर बार ,बच्चों को लगड व पू बड़े पसंद थे। बच्चों का चेहरा सामने आते ही ,दीवान दा का कलेजा मुँह को आ रहा था ,दिमाग काम नही कर रहा था ,ऐसी स्तिथि उसके सामने कभी नही आई ठहरी ,उसे समझ नही आ रहा था की ,कल वो दीवाली का त्यौहार मनायेगा कैसे। उसे सबसे ज्यादा ग्लानि इस बात से हो रही थी की ,कल सबके बच्चे पटाखे फोड़ेंगे ओर नये कपड़े पहनेंगे ,ओर उसके बच्चे लोगों का मुँह देखेंगे। दीवान दा कल का सोच कर ब

बैचेनी

पहाड़ घूमने का शौक मुझे बचपन से ही रहा, ओर उसमें भी इंटीरियर पहाडी क्षेत्रों का भ्रमण मुझे बेहद पसंद रहा है। पुराने गाँव ओर वहाँ बने पुराने मंदिर व पुरानी कुडियाँ ( घर ) मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं ,इस बार भी जब एक गाँव में जाने का अवसर मिला ,ओर वहाँ जाकर पता चला की ,गाँव की ऊँची पहाड़ी पर एक पुराना थान है ,बस फिर क्या था ,उठा कर अपनी झोला झन्टी निकल पड़ा उस ओर। कुछ दूरी तय करने के बाद एक बूढ़े बूबू बकरी चराते हुये मिल गये ,उन्होंने पूछा काहीं जाण छा महाराज ( कहाँ जा रहे हो महाराज )  ,जब मैंने उन्हें मंदिर के बारे में बताया तो ,वो बोले वां जाबेर बैचैनी जस है जाँ ( वहाँ जाकर अजीब सी बैचेनी हो जाती है ) ,ये लीजी कोई वां न जाण ( इसलिये वहाँ कोई नही जाता ) ,तुम जाँण छा तो थोडा ध्यान राखिया आपण (तुम जा रहे हो तो थोड़ा ध्यान रखना अपना ) ,मेर हिसाबे ली तो न जाओ तो ठीक रौल (मेरे हिसाब से तो ना जाओ तो ठीक रहेगा ) ,पर भला जिज्ञासु कहाँ रुकता है ओर इसलिये मैं भी नही रुका ,ओर बूबू के इस सवाल को साथ लेकर ,मैं निकल लिया मंदिर की ओर। वहाँ पहुँच कर देखा की ऊँची पहाड़ी पर बने थान ( मंदिर ) में ,थान क

देबुली की पेट पीड

देबुली की पेट पीड भी गजब थी ,हफ्ते में दो दिन तो पक्की होने वाली ठहरी। पेट पीड भी ऐसी की ,देबुली फुराणी जाने वाली ठहरी ,उस दौरान बाख़ई में बस देबुली की ही ओ ईजा मर ग्यु ,ओ बाज्यू बचा लियो मैं कें की ,आवाज का शोर गूँजता ,बाख़ई के कुकुर भी भौंकना छोड़ देते थे ,शायद ये सोच कर की ,भौंकने की आवाज तो दब रही है ,फालतू में क्यों भौंके। पीड उठने का भी कोई टाईम नही हुआ ,कभी भी शुरू हो जाती ,एक आध घंटे तक देबुली फुराणी रहती ओर फिर धीरे धीरे ठीक हो जाती। देबुली के घर वाले परेशान थे ,देबुली की पेट पीड से ,डाक्टर को भी दिखा दिया ठहरा ,सारी जाँच करवा ली ठहरी ,निकला कुछ नही ,देबी देबता की पूछ भी  करवा ली ,जागा ,जागर ,पश्टन सब करवा डाला ,पर सब जगह का जवाब एक सा की ,कुछ नही है ,पर पीड क्यों हो रही है ये पकड़ में नही आया। देबुली की सास तो देबुली की पेट पीड से, सबसे ज्यादा परेशान थी ,देबुली के पेट पीड के कारण,  उसे ही सारा काम करना पड़ता था ,ऊपर से देबुली की साज समार ओर करनी पड़ती वो अलग थी। देबुली के घर वाले समझ नही पा रहे थे की ,आखिर देबुली को पेट पीड किस कारण हो रही है ,जबकि जाँच में ओर दयाबतों

हियुन का पहाड़ - सर्दी का पहाड़

हियुन ( सर्दी ) का मौसम ठहरा,  ओर मेरा जाना हुआ पहाड़ को ,गर्मियाँ तो बहुत देखी थी, पर हियुन में पहली बार गया ,बस सुना ही रखा था की ,खूब ठंड पड़ती है ,ओर कहीं कहीं तो बर्फ भी पड़ती है। बस जब हियुन ( सर्दी ) में जाने का मौका पड़ा तो ,खुद को रोक नही पाया ,रानीखेत एक्सप्रेस में टिकट बुक करवाया,  ओर निकल पड़ा पहाड़ की ओर ,एक स्लीपिंग बैग साथ रख लिया ,जो यात्रा में बहुत काम आया ,उसके अंदर घुसने के बाद पता ही नही लगा की ठंड का मौसम भी है। ठंड का पता तो लगा काठगोदाम स्टेशन पर लगा ,सुबह के 4 - 4.30 बजे का समय ,ओर हियुन ( सर्दी ) के दिन ,ओर गजब की ठंड ,शरीर के सारे अंग थरथरा गये थे। सामान समेट कर स्टेशन से बाहर आया ,ओर स्टेशन के सामने चाय की दुकान की ओर दौड़ काट दी ,एक गिलास चाय ली ओर एक बन लिया ,पर चाय कम पड गई ,एक गिलास ओर लेकर उसे हड़काया ,थोड़ी सी राहत मिली ,ऊपर पहाड़ जाने को एक गाड़ी मिल गई ,उसमें बैठ भीमताल तक चल दिया। गाड़ी के शीशे बंद होने के कारण ठंड कम हो गई ,एक घंटे के अंदर भीमताल पहुँच गया ,ओर जब उतरा तो फिर थुरुडी ( कपकंपी ) काँप उठी ,यहाँ तो काठगोदाम से भी ज्यादा ठंड थी ,नाक कान म

अकेलापन

अकेलापन  बूबू अपने मकान के अंदर बैठे टकटकी लगाये बाहर देखते अक्सर मिल जायेंगे ,बड़े सारे मकान में अब सिर्फ बूबू ही बचे हैं ,आमा कुछ सालों पहले चल बसी ,चेलियों को बिवा ( शादी ) दिया ओर इकलौता बेटा रोजगार की तलाश में ऐसा निकला की लौट कर ही नही आया। बूबू का भरी पूरी कुड़ी ( घर )आज बिल्कुल खाली हो चुकी है ,बस बूबू ही यहाँ रहकर, कुड़ी को ये अहसास करवाते हैं की ,मैं याँ रों छू ( मैं यहाँ रहता हूँ )। कभी गाय बकरियों से भरा रहने वाला गोठ आज खाली पड़ा ,किलों पर बँधे ज्योड ये बतलाते हैं की कभी हम भी काम के थे। बौनाव के पत्थर भी अब दिखने से लगे हैं ,गोबर मिट्टी की लिपाई उखड़ गईं है ,ओर अब बूबू से हो  नही हो पाती ,भीतर जरूर लिपलाप कर रहने लायक बना रखा है ,शायद इतनी ही ताकत शेष रह गईं है अब बूबू के अंदर। कुड़ी अभी तक खड़ी व ठीकठाक है ,पाख अभी चूने नही लगा था ,चुल्यान में चूल्हा जो जलने वाला हुआ ,ओर उसके ध्वा ( धुयें ) से पाख की लकड़ियों को मजबूती मिल रही है ,कोई नही रहता तो, पाख कब की लकड़ियाँ कब की सड़ गईं होती। बूबू अभी भी  माठू माठू ( धीरे धीरे ) ही सही अपने काम कर निपटा लेते हैं ,पुराना  खाया

खुशाल दद्दा

दद्दा ने कम उम्र में ही अपने परिवार की आर्थिक स्तिथि सुधारने के लिये अपने बौज्यू के साथ काम करने लगे थे। दद्दा के परिवार में वो सबसे बड़े बेटे थे ,दद्दा के अलावा उनके आमा बूबू , ईजा बौज्यू ओर चार  छोटे भाई - बहिन थी 9 जनों का  भरापूरा परिवार था दद्दा का। परिवार बड़ा होने के कारण खर्चा भी काफी ठहरा ,आनेजाने वाले मेहमान अलग हुऐ ,खेती पाती से ही सब करना हुआ ,अकेले दद्दा के बौज्यू के बस का कहाँ ठहरा ,इसलिये दद्दा काम में हाथ बँटाने लगे ओर इसके चलते स्कूल छोड़ना पड़ा ,पर दद्दा ने छोटे भाई बहिनों की पढ़ाई नही छुड़वाई ,जो जितना पढ़ सकता था ,उसको उतना पढ़वाया ,दद्दा के अलावा सब अच्छा पढ़ लिख गये ,नही पढ़ पाये तो सिर्फ दद्दा। दद्दा आपका मन नही करता था क्या पढ़ने को ये सवाल पूछने पर दद्दा बोले भुला मन तो कर छी,  पर परिवार कं ले देखण छी न ,तब पढ़ाई देखण छी या परिवार ,बस पढ़ाई छोड़ बेर परिवार  देखण लाग गयों। दद्दा अपनी ईजा ओर किसी अन्य सदस्य को कभी ये अहसास नही होने देना चाहते थे की घर में कोई कमी है ,उनको अपनी तरफ से कोई कमी का अहसास नही करवाना चाहते थे ,इसके चलते दद्दा

हलिया

गुमानी का नाम कब ,हलिया गुमानी पड़ गया, उसे खुद पता नही ,पूरा गाँव उसे गुमानी हलिया के नाम से ही पहचानता था ,कोई अगर उसे गुमानी के नाम से ढूँढें तो गाँव वाले समझ नही पाते थे की कौनसा गुमानी को पूछ जा रहा है। गुमानी को लोग हलिया कैसे कहने लगे ,इसके पीछे एक लम्बी कहानी है ,गुमानी कभी स्कूल जाया करता था ,ओर पढ़ने में काफी होशियार भी हुआ करता था ,पर किस्मत का पासा ऐसा पलटा की ,पढ़ने वाले गुमानी की पढ़ाई छूट गई ,ओर उसे लोगों का हल जोतना पड़ा ,हुआ यों की गुमानी के बौज्यू लोगों के खेतों में हल जोत कर ,अपने परिवार का भरण पोषण करते थे, जीवन ठीक ठाक चल रहा था ,गुमानी तब पढ़ने स्कूल जाया करता था ,होशियार होने के कारण ,गाँव के लोग कहते भी थे की खिम्मू हलियोक च्योल क्याई न क्याई बनोल ,ओर ये सच भी था ,क्योंकि गुमानी जिस तरह से अव्वल आता था ,उससे लगता भी था की ,वो पढ़ लिख कर कोई अच्छी नौकरी पा लेगा। पर कहते हैं ना की जब बुरे दिन आते हैं तो चारों तरफ से आते हैं ,ऐसा ही कुछ गुमानी के परिवार के साथ हुआ ,एक दिन हल जोतते समय गुमानी के बौज्यू के पैर में हल का फाव बुड़ ( घुस ) पड़ा ,गुमान

धन्ना बोजी क चाहा - धन्ना भाभी की चाय

धन्ना बोजी आज बेहद थकी थकी सी लग रही थी ,उनके पैर मानो उनका साथ ही नही दे रहे थे ,पसीने में तरबतर होकर वो थोड़ी देर पहले ही खेत से गेहूँ काट कर लौटी ही थी। वो आते ही घर के बोनाव में पैर पसार कर बैठ गई ,ओर अपनी चैली को आवाज लगाते हुये बोली भग्गू एक लौट्टी ठंड पाणी दी दे जरा ,तीसेली हाल खराब है गी। भग्गू अपनी ईजा की आवाज सुनते ही तुरंत एक लोटा ठंडा पानी ले आई ,धन्ना बोजी ने पानी पिया ,थोड़ी राहत सी महसूस हुई ,फिर भग्गू को आवाज लगाई की एक गिलास चहा बना ला तो  जरा। जवाब में भग्गू बोली ईजा दूध बिराउ पी गौ आज ,न जाणी कस्ये ,काई चहा बणा बेर ली ओं छू।  धन्ना बोजी को तो चहा चाहिये था ,अब दूध वाली हो या बिना दूध की ,तो वो बोली काई बना ला पे ,गूड जरा ठुल ठुल ली आये।  भग्गू चाय बना लाई ,धन्ना बोजी सुड़ुक मारते हुये चाय पीने लग गई ,उनके सुड़ुक मारने की आवाज आसपास तक सुनाई दे रही थी। चाय पीने के बाद धन्ना बोजी कुछ देर तक तो पसरी बैठी रही ,फिर उठी शायद उनकी चहा ने उन्हें कुछ एनेर्जी प्रदान कर दी थी ,उन्होंने भग्गू को आवाज दी ,तू जल्दी पाणी भर ला ,तब तक मैं भात दाव पका ली छू ,तेर बौज्यू आ जाल

पहाड की पीड़ा - Mountain Pain

पहाड की ईजाओं के नसीब में सिर्फ घर सम्भालना ही नही होता, बल्कि अपने नौजवान बेटों के दूर होने का दर्द भी होता है। पहाड के लिये जिसने भी ये कहावत गढ़ी है, वो कितनी सटीक है की पहाड की जवानी ओर पहाड का पानी पहाड के काम नही आता। जहाँ भी जाओ वहाँ की ईजाओं का ये दुख एक सा दिखाई देता है, अपने बेटों की चिंता करती इजाऐ आपको हर कहीं दिखाई दे ही जायेंगीं। अगर कोई उस शहर से जहाँ उसका बेटा गया है, गाँव आ जाये तो ईजाये दौड़ दौड़ कर उस शख्स से मिलने आ जाती है, मकसद होता है, अपने बेटों का हाल जानने का। मैं भले ही शहर में ही पैदा हुआ पर गाँव से निरंतर जुड़ाव रखा, इस नाते गाँव के लोग मुझे जानते हैं, मैनें तभी इस बात को प्रत्यक्ष महसूस किया है। इन ईजाओं का अपने बेटों से बिछोह का दुख देखकर अत्यंत दुख होता है, क्योकिं मुझे पता है, जब इन ईजाओं के बेटे शहरों में आते हैं तो उन्हें कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, नया शहर, नया काम, ओर अनुभव की कमी उनके रास्तों की जंजीरें बन कर रास्ता रोक देती हैं, तब ईजा का वो बेटा छटपटा उठता है, भूखा प्यासा ओर बेघर वो बेटा, चिंतित हो उठता है की अब न जाने क्या होग

बच्ची का - Bachi uncle

ओ बच्ची का कहाँ को भाग दौड़ हो रही है रत्ती ब्यान (सुबह सुबह ) ,बच्च दा को टोकते हुये गोपाल दा बोले, सुनते ही बच्ची का पलटे ओर बोले फाव मारने (मरने ) जा रहा हूँ , चलेगा क्या। गोपाल दा खितखित हँसते हुये बोले, वहाँ तुम ही जाओ, पर चाय पीकर जाना आ जाओ।  फटा जूता, सिर पर टोपी, ढीली सी पतलून ओर ऊपर फटी सी स्वेटर पहने बच्ची का ,चाय का नाम सुनते ही बड़ी ठसक से खुट में खुट (पाँव में पाँव ) रखकर आँगन में आकर बैठ गये, ओर जोर की आवाज लगा कर बोले , ओ ठुल ईजा (ताई ) गुड जरा ठुल ठुल लाये (गुड जरा बड़ा बड़ा लेकर आना ) , कम मिठ में पी जस न लागीन (कम मीठे में चाय पी जैसी नही लगती ), अक्रिम (अजीब )स्वाद हो जाता है चाय का। बच्ची का गाँव के हर घर को अपना घर सा ही मानते थे, इसके चलते ही वो इस तरह की बात अधिकारपूर्ण बोल जाते थे। बच्ची का जवाब देने में बड़े हाजिर  थे, लोग मजाक करते तो बच्ची का ऐसा जवाब देते की सामने वाला खिसिया कर रह जाता, वैसे बच्ची का थे सीधे व सरल इंसान । गाँव में बस उनकी टूटा फूटा मकान था, बाकि जमीन जायदाद तो उनके रिश्तेदार खा गये थे,जब वो बहुत छोटे थे, उनके पिता का देहांत हो गया थ

पहाडी चिडिया - Mountain Bird

रेबा ,गाँव में उसे सब इसी नाम से पुकारते थे, वैसे उसका नाम ठहरा रेवती। किशन दा की चैली रेबा को पहाड़ से बड़ा लगाव था,जब उसके साथ की लड़कियाँ हल्द्वानी शहर की खूबियों का बखान करती तो, रेबा बोल उठती, छी कतुक भीड़ भाड़ छ वाँ, नान नान मकान छ्न, गरम देखो ओरी बात, मैं कें तो बिल्कुल भल न लागण वाँ,मैं कें तो पहाड भल लागु, ठंडी हौ, ठंडो पाणी, न गाडियों क ध्वा, ना शोर शराब ,पत्त न की भल लागु तुमुके हल्द्वानी, मैं कें तो प्लेन्स बिल्कुल भल न लागण। रेबा पहाड़ की वो चिडिया थी, जिसकी जान पहाड़ में बसती थी, उसके लिये पहाड़ से अच्छी जगह कोई नही थी, रेबा सुबह जल्दी उठ कर ,सबके लिये चाय बनाती फिर स्कूल जाती, वहाँ से आकर घर का छोटा मोटा काम निपटाती, ओर फिर पढ़ने बैठ जाती,ये रेबा की दिनचर्या का हिस्सा था। रेबा अब इन्टर कर चुकी थी, किसन दा अब उसके लिये लड़का ढूँढने लग गये थे, ताकि समय पर उसके हाथ पीले हो सके।पर रेबा चाहती थी की उसकी शादी पहाड़ में ही कहीं हो, उसने अपनी ईजा को भी बोल दिया था की ,तू बाबू थें कै दिये मेर ब्या पहाड़ में ही करिया, भ्यार जण दिया। इधर किसन दा रेबा के लिये