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पुराने समय में गाँव का सफर

दसियों किलोमीटर तक सड़क का तब नामोनिशान नही था, जो लोग बाहर रहते थे, वो बस में बैठने के लिये ,पहले 7 किलोमीटर ढलान में उतरते हुये गाड ( नदी ) तक पहुँचते, फिर 5 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ कर एक पहाड़ को पार करते हुये सड़क तक पहुँचते, मैं भी बचपन में कई बार उस रास्ते गया हूँ। गाँव जाना बेहद पसंद ठहरा बचपन से, हल्द्वानी से केमू ( कुमाऊँ मोटर ऑपरेटर यूनियन ) की बस , जो की तब ट्रकनुमा हुआ करती थी, ओर सीटें लकड़ी के पटरे से बनी हुई होती, उसमें सफर करते हुये अल्मोड़ा तक पहुँचते, वहाँ से वाया दन्या होते हुये पिथौरागढ़ जाने वाली बस में बैठ कर आगे का सफर शुरू होता, जो की काँडानौला जाकर खत्म होता।  जिस साल अल्मोड़ा से आगे की बस नही मिल पाती, वो दिन खुशी का होता, क्योकिं उस दिन अल्मोड़ा होटल या गेस्ट हाउस में रुकने को मिलता, उन दिनों होटल में रुकना बहुत बड़ी बात हुआ करती हमारे लिये तो, साथ ही सफर के दौरान हुई थकान भी थोडा़ कम हो जाती। पर दूसरे दिन तो जाना ही पड़ता अल्मोड़ा से ,पहाड़ी घुमावदार रास्ते से काँडानौला पहुँचते ही ऐसे लगाता, जैसे गढ जीत लिया हो, ऐसा महसूस होता जैसे किसी आक्सीजन की कमी वाले म

यादेँ पहले सांस्कृतिक कार्यक्रम की - Remember the first cultural program

1960 के आसपास की होगी, तब जयपुर राजस्थान में प्रवासी उत्तराखंडियों के दो समाज बन चुके थे , पर उसमें युवा वर्ग का कोई प्रतिनिधित्व नही था ,ओर इसकी वजह से हम जैसे प्रवासी युवा जो, यहाँ पैदा हुये थे,, अपनी संस्कृति से पूरी तरह जुड़ नही पा रहे थे, क्योकिं हम युवाओं के पास खुद कुछ करने के लिए तब था ही नही कुछ भी। ना ही हमें अपनी बोली बोलनी आने वाली ठहरी ,ना ही हमारे कोई लोक गीत व संगीत समझ में आने वाले ठहरे, एक तरह से हम लोग अपने पहाड़ की संस्कृति सभ्यता से अलग थलक से थे, सिर्फ नाम के उत्तराखंडी, जो सिर्फ बोली तो समझ जाता था आधी अधूरी, पर बोल नही पाता था,  तब मन में विचार आया की, क्यों ना ऐसा एक संगठन बनाया जाए, जिसमें सिर्फ युवा हो। बस यही सोच कर कुछ उत्तराखंडी युवा मित्रों को अपना विचार बतलाया ओर वो भी इसके लिए राजी हो गए ओर इस तरह स्थापना हुई उत्तराखंड़ युवा विकास परिषद की। एक संचालन समिति का गठन किया गया, जिसमें अध्यक्ष पद पर प्रकाश पांडेय जो की आजकल उत्तराखंड में जाने माने ठेकेदार हैं विराजित हुऐ ओर मुझे प्रथम महासचिव पद का दायित्व दिया गया, उपाध्य्क्ष पद पर डा.सूरज सिह जी नेग

आमा के स्वेटर

अपने हुनर के माध्यम से, गाँवो से  पलायन करने वाले लोगों के लिये एक उदाहरण थी आमा। आमा ने गाँव में रहकर ही, ना केवल खुद के लिये ही रोजगार का सृजन किया था ,अपितु गाँव के अन्य लोगों को भी रोजगार प्रदान कर रही थी। आमा से बातचीत के दौरान उनके इस हुनर की कहानी पता लगी, जो काफी रोचक है। आमा शुरू से ही हुनरमंद महिला थी, जैसा की आमा ने बताया, उन्होनें कहा बचपन में उन्हें स्वेटर बुनना उनकी आमा ( दादी ) ने सिखाया ओर उसे ओर उसमें निखार लाई थी उनकी ईजा ( माँ )।  आमा ने बताया मेरी ईजा ( माँ ) सुँदर स्वेटर बुना करती थी, गजब के डिजाइन होते थे उनके बुने स्वेटरों में , लोग खूब खरीद कर ले जाते थे , आमा ( दादी ) ओर ईजा ( माँ ) तो दिन भर स्वेटर ही बुनती थी, फिर भी लोगों का पूरा नही हो पाता था। जब मैं थोडा़ बड़ी ओर समझदार हुई तो मुझे भी सीखा कर इसी काम में लगा दिया, मेरी आमा ( दादी ) कहती थी, ये तेरे काम आयेगा, कभी भूखे नही रहेगी, अगर इसे सीख लिया तो। मेरी शादी के बाद मेरा ये हुनर ही मेरे बहुत काम आया, जमीन कम होने से खेती सिर्फ खाने लायक ही हो पाती थी ऐसे में इस हुनर से ही, बाल बच्चों को लिखाया

नैन सिंह माटसाहब

माटसाहब ठहरे अपने जमाने के खुर्राट मास्टर , गणित के अध्यापक थे इसलिये थोडा ओर खुर्राट लगते थे छात्रों को।  भेकुव के सिकाड ( डंडी ) के साथ जब कक्षा में आते तो , पढ़ाई से मन चुराने वाले छात्र  , मन ही मन ये प्रार्थना करने लग जाते की हे ईष्ट देबता आज बचा लिया , बस भोव बठी पक्क पढूँन ( हे ईश्वर आज बचा लेना , कल से पक्का पढ़ लेंगें), इतना खौफ था नैन सिंह माटसाहब का।  ओर हो भी क्यों ना , वो सिर्फ कक्षा में ही नही मारते थे , अपितु शाम को उद्दंडी छात्र घर जाकर, उसके पिता के सामने ओर सिकडा ( सटका ) देते थे , उनके इस खौफ के कारण कई छात्रो का भला भी हो गया ठहरा।  उनके पढ़ाए छात्र आज अच्छी अच्छी जगह नौकरियों में हैं  , नैन सिंह माटसाहब केवल स्कूल से ड्यूटी शुरू नही करते थे , अपितु स्कूल जाते समय आसपास के छात्रों को सँग ले जाते थे।  पढ़ाने के साथ साथ स्कूल के प्रति गजब का समर्पण ठहरा उनका , ओर नौकरी पूरी करने के बाद भी शिक्षा से सरोकार नही टूटा उनका।  आज भी उसी स्कूल में बच्चों की एक्स्ट्रा क्लास लेने बिना नागा किये जाते हैं , साथ ही ऐसे बच्चों की मदद करते हैं जो फीस नही भर पाता या स्कूल की

कहानी दीप दा की

कहते हैं ना की घर को घर बनाने के लिये किसी स्त्री का होना आवश्यक होता है,ओर दीप दा की जिंदगी में इसी चीज की कमी थी, इस कारण बड़ी अस्त व्यस्त जिंदगी थी दीप दा की। दीप दा के आगे पीछे कोई नही था ,सो उनके विवाह करवाने में कौन ध्यान देता ,इसके चलते उनकी शादी ,अब तक नही हो पाई थी। जहाँ उनके साथ के लोगों के दो दो, तीन तीन नानतीन ( बच्चे ) हो गये थे ,वहीं दीप दा अब तक कुँवारे ही बैठे थे। भला कोई क्यों रुचि ले ऐसे आदमी के लिये , जिसका कोई ना हो, ओर जमीन जायदाद भी कोई खास ना हो, शायद यही कारण था की उनकी शादी नही हो पा रही थी। वैसे दीप दा काफी मेहनती इंसान थे ,मेहनत मजदूरी करके ठीक ठाक पैसा भी कमा लेते थे ,पर कौन उनकी रिश्ते की बात चलाये। पर कहते हैं ना दिन सबके पलटते हैं, किसी के जल्दी तो, किसी के देर से, ठीक ऐसा ही दीप दा के साथ हुआ बल , हुआ ये की एक बार दीप दा को, गाँव में रहने वाला ठेकेदार लेबरी के लिये अपने साथ पास के ही गाँव में ले गया, जहाँ दीप दा ओर अन्य लेबरों का एक गोठ में रहने का इंतजाम ठेकेदार ने कर दिया। वो गोठ जिस बुजुर्ग का था ,उस बुजुर्ग की एक लड़की थी, उस गाँव के लोग कह

यात्रा अनदेखी जगहों की

यात्रा अनदेखी जगहों की  उत्तम दा बरसों के बाद गाँव आए थे, दो चार दिन ही रुके थे की बोले ,भाई इस बार एक जगह नहीं रुकना, इस बार जितना देख सकता हूँ ,उतना देख लेता हूँ अपने पहाड़ को, फिर पता नहीं कब आना हो , तू चलता है तो चल साथ। मैनें कहा दद्दा ( भाई ) चल तो लेंगे पर रहेंगे कहाँ, हर जगह ठहरने की व्यवस्था तो मिलेगी नहीं, तब उत्तम दा बोले, एक फोल्डिंग टेंट लाया हूँ दो जने ठहर सकते हैं उसमें, और इस तरह हम निकल पड़े मोटरसाईकल लेकर भ्रमण पर। अगले दिन शुरू हो लिया हमारा सफर, उत्तम दा का जहाँ को दिल किया उस रोड पर मोड़ दी मोटरसाइकिल ओर निकल लिए हम उन अनजानी जगहों की ओर। इम्रर्जेँसी में खाने के लिए कुछ ड्राई फ्रूट्स और मैगी रख ली ,ताकि कहीं भोजन उपलब्ध ना हो सके तो ,दिक्कत ना हो ओर भोजन पका कर खा लिया जाए। गाँव से निकलने के बाद, सफर के पहले पड़ाव पर ,एक कच्ची रोड ऊपर को जाती दिखी, पूछने पर पता लगा की ,आगे के दस गाँवो से होती हुई , ये सड़क देवीधुरा रोड पर मिल जाती है ,और हम निकल पड़े उस ओर, नया अनुभव था इसलिये इस तरह के सफर मजा भी आ रहा ठहरा,नई जगह नये लोग नया रास्ता। कुछ देर का सफर करने के

Short stories in hindi

पित्तू  दन दा एक छोटा सा कुकुड ( मुर्गा ) लाये थे , वो इतना छोटा सा था की ,उसका नाम ही पित्तू रख दिया ठहरा।  दन दा का पित्तू था तो कुकुड ( मुर्गा ) , पर काम कुकुर (कुत्ते ) जैसे भी कर जाता था , कोई गैर दिख गया तो ,इतना हल्ला कर देता था की , बाखई के लोग एक बार ,बाहर आकर जरूर देखते की कौन अनजान आ गया। जब तक आया व्यक्ति घर के अंदर ना चला जाये , तब तक पित्तू, उसे घूरता हुआ, उसके आसपास ही घूमता रहता।   कोई जानवर गलती से आ जाये पित्तू के एरिये में तो ,  उसको चोंच मार मार कर , जब तक खदेड़ नही डालता तब तक उसे चैन ना आता।  बाखई के जानवरों को तंग करना तो ,उसका प्रिय शगल ठहरा , कभी सोये कुत्ते की पूछ में चोंच मार उठा देता , तो कभी भैंसों के ऊपर बैठ जाता।  अजनबी बिल्लियों का तो पक्का दुश्मन ठहरा , बिल्ली दिखते ही तब तक शोर मचाता , जब तक बाखई वाले बिल्ली खदेड़ ना देते।  बाखई का कोई बच्चा उसे गलती से छेड़ दे तो , पित्तू उसके खदेडे ( पीछे ) पड़ जाता ,ओर एक आद चोंच मारे बिना उसे छोड़ता नही था , इसलिये बाखई के बच्चे उससे छेड़खानी कम ही करते थे।  पित्तू था बड़ा ठसक वाला

देब्बू

आज सुबह से ही आसमान में बादल छाये हुये थे, देब्बू परेशान था ये सोच कर की आज ठेकेदार ज्यू ने काम नही लगाया तो, उसकी बात खराब हो जायेगी, आज उसको दुकानदार शिव दत्त जोशी का कर्जा तारना ( चुकाना ) था। देब्बू गरीब जरूर था पर उसे अपनी इज्जत बहुत प्यारी थी, शिव दत्त दुकानदार के बारे में वो जानता था कि, उसका पैसा टाइम पर नही चुकाने वालों की ,वो पूरे गाँव में छरेठी (बाजा बजा) कर देता है,ओर इसी का डर देब्बू को भी सता रहा था। वो बार बार भगवान को हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हुये कह रहा था की, हे ईश्वरा आज जण ( मत )  बरसाये दयो ( बारिश ), लाज रख लिये ,नतर ( नही तो ) आज शिव दत्त ज्यू छरेठी ( बाजा बजा )  कर दयाल ( देंगें )। देब्बू दयो रोकने के सारे उपाय भी कर चुका था, उसने आँगन में उल्टा तवा भी रख दिया था, जिसके बारे में पहाड़ों में माना जाता है की,ऐसा करने से बारिश रुक जाती है। पर देब्बू के कोई उपाय काम नही आये, ओर दयो ( बारिश )  होना शुरू हो गया ,ये देख देब्बू मायूस हो गया। आज उसको अपनी छरेठी होती पक्की दिख रही थी,उसका दिल बैठा जा रहा था, उसने खुद को इतना लाचार अब से पहले ,कभी म

काफल वाला लड़का

वो  काफल बेचने सड़क पर बैठा था , छोटी सी छबरी में ताजे ताजे काफल लेकर , बारह तेरह साल के आसपास का होगा।  आसपास बस्ती भी नही थी , पूछा तो दूर दिख रहे गाँव की तरफ इशारा करके बताया की वो है मेरा गाँव , इतनी दूर से काफल बेचने वो सड़क पर बैठा था अकेला , आती जाती गाड़ियों को हसरत भरी निगाहों से ताकता हुआ की , कोई गाड़ी रुक कर शायद काफल खरीद ले।  मैं भी मोटरसाइकिल चला कर थक गया था , इसलिये रुक गया उसे देख कर की , चलो जंगल में कोई तो दिखा चाहे बच्चा ही सही।  मेरे रुकते ही उसका चेहरा खिल उठा , शायद ये सोच कर की शायद उसके कुछ काफल बिक जाएंगे , मैंनें भी थोड़े काफल खाने के लिये खरीद लिये। अकेला क्यों हैं पूछने पर वो बोला , बोज्यू  (पिता ) नही हैं इसलिये घर में कमाने वाला नही है कोई , खेतीबाड़ी भी कम ही है , दो चार पेड आड़ू , खुमानी ओर पुलम के हैं ओर थोडा ये काफल से सहारा हैं बस ,इसलिये यहाँ आ जाता हूँ।   कितना बेच देते हो पूछने पर जवाब मिला , कभी 100 रुपये का तो कभी 200 - 300 रुपये तक के , इतने से पैसों के लिये वो छोटा सा बालक जंगल के बीच रोड