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अप्रैल, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वीर दल्लू - Brave Dallu

दल्लू बचपन से ही बड़ा उद्ण्डी ठहरा , शरारत तो उसके जैसे रोम रोम में भरी थी , गाँव के लोग उसकी शरारत से दुखी रहते थे , ओर उसकी शिकायत उसकी ईजा से करते , फिर ईजा ग़ुस्से में आकर खूब थेच ( मार ) देती थी , ओर फिर रो जाती थी। तब दल्लू बोलता.. ईजा ( माँ ) इतना थेचती ( मारती ) ही क्यों है , जो बाद में तुझे डाँड़ (रोना )  मारनी पड़ती है , कम थेचा (मारा ) कर , ताकि तुझे डाँड़ (रोना )  ना मारनी पड़े , ये सुन कर उसकी ईजा लकड़ी लेकर उसके पीछे भागती , ओर दल्लू दौड़ काट देता था। दल्लू था दुबला पतला पर था पर दौड़ भाग में था बड़ा तेज , कुल मिला कर कहा जाये तो उत्पाति (ऊधमी ) ठहरा , पर ठहरा गाँव का सबसे एक्टिव बच्चा , चंचल होने के कारण खेलकूद में ज्यादा ध्यान ठहरा , ओर पढाई कम ही करता  , पर पास हो जाता था।  उसकी ईजा उससे कहती भी थी... थोडा ओर पढ़ लीने ( लेता ) तो भल ( अच्छे ) नंबर आ जान ( जाते ) , पर ईजा की सुनता कहाँ था दल्लू , वो तो अपने मन की करता था। उम्र बढ़ने के साथ उसमें थोड़ी समझदारी दिखाई देने लगी थी , वो अब अपनी ईजा से कहता था... ईजा तू चिंता मत कर मेरी बिल्कुल भी , देखना एक दिन मैं कुछ ब

पूरन दा उर्फ पुर दा की कहानी

पुर दा जब चौदह पंद्रह साल के होंगें , तब गाँव के कुछ लौंडों के साथ , भाग कर दिल्ली जैसी जगह आ गये थे।  पहुँच तो गये पर , दिल्ली ठहरी उनके लिये नई , कोई जानकार भी नही ठहरा , तो काम धाम कौन दिलाता।  रात फुटपाथ पर काटी ओर , दो तीन दिन जेब में बचे पैसों से खाया पिया , जब पैसे भी निमड़ ( खत्म ) पड़े तो , खाने के भी लाले पड़ गये ठहरे।   काम की तलाश में भटकते रहे  , पर दिल्ली में काम मिलना भी आसान नही हुआ , एक आद दिन भूखे पेट भी सोये , गाँव की याद भी आई , पश्चाताप भी हुआ की , खाली ही इधर को आये , लौटते भी कैसे , पैसे भी नही बचे ठहरे अब तो।  यों ही भटकते भटकते एक दिन पुर दा , एक ढाबे के बाहर बैठ गये , लोग खाना खा रहे थे , खाने की खुशबू से वातावरण ओर महक रहा ठहरा , पुर दा कातर दृष्टि से लोगों को देख रहे थे , ढाबे में काम करने वाला कुक जो की पहाड़ से ही था , छौंक लगाते लगाते पुर दा को देख रहा था की लौंडा भूखा है।  उसने इशारे से पुर दा को बुलाया , ओर बोला भाज बेर आर छे न , पुर दा ने होई बोल कर जवाब दिया , कुक बोला नौकरी कर ले , पुर दा तपाक से हाँ बोला।  उन्हें तो

पहाड़ की महिमा - Glory of Mountain

बी एस एफ ( बार्डर सिक्योरिटी फोर्स ) में 60 साल की नौकरी पूरी करने के बाद करम सिंह ठुल बोज्यू ( करम सिंह ताऊ जी ) ने रिटायरमेंट के बाद गाँव में ही बसने का फैसला किया।   जहाँ उनके साथियों ने हल्द्वानी शहर में प्लाट लेकर मकान लगा लिये, वहीं ठुल बोज्यू ( ताऊ जी ) ने अपने पुराने मकान को ही ठीक करवा कर बढ़िया बना लिया था। उनके हल्द्वानी बसे साथी उनसे तब कहते भी थे की , करमू तू जिंदगी भर फौज की नौकरी के चलते जंगलो में रहा ,ओर आज भी जंगलों में रहने की सोच कर खुद को पक्का जंगली साबित कर रहा है। तब करमू  ठुल बोज्यू ( ताऊजी ) उन्हें जवाब देते हुये कहते थे की, ओन दियो वक़्त ( आने दो वक़्त ) पत्त लाग जाल ( पता लग जायेगा ) को जंगली छ ओर को समझदार ( कौन जंगली है ओर कौन समझदार )। खाली ना बैठने वाले करमू ठुल बोज्यू ( ताऊजी ) ने एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा गाँव की सड़क किनारे भी ले लिया था ओर उसमें छोटी सी दुकान सी बना ली, जिसमें उन्होनें खाने पीने का ढाबा खोल लिया था। ठुल बोज्यू ( ताऊजी ) चूँकि खुद अच्छा खाना बनाते थे इसलिए ढाबे में भी खुद ही सब बनाते, गाँव के इन्टर काँलेज

दगडी

खीमुली , रमुली , कमई का ससुराल एक ही गाँव में था , ओर तीनों ही गजब की संगी ( सखियाँ ) ठहरी।  हर काम साथ ही होने वाला ठहरा इनका , घास काटने से लेकर , फसल आदि का काम दिगाड (साथ ) ही किया करते थे।  घास काटने जाते तो , जंगल इनके गाये गीतों से गूँज उठता , गाते गाते ही इतनी घास काट जाते की , गाँव का कोई ओर व्यक्ति ना ला पाये।  ऐसे ही खेत में काम करते वक़्त हाल ठहरा इनका , बोलते बुलाते कब खेत गोड जाते , इन्हें भी पता नही लगता।  पूरे गाँव में इनकी जोड़ी काम करने के मामले में अव्वल ठहरी , गोरु , भैंस भी काफी पाल रखे थे इन्होंने , ओर बकरियाँ इतनी पाली ठहरी के गिनती में ना आये।  तीनों एक साथ ग्वाले जाती , बकरियाँ भी क्या ठहरी गद्ददू ही मान लो , गोल मटोल एकदम तगड़ी बल , इसलिये आसपास गाँवों के लोग इनसे ही बकरियाँ खरीदने आते।  लकड़ियों का ढेर देखो , अनाज देखो , फल फूल देखो , धिनाली पानी देखो  सबसे ज्यादा इनके वहाँ ही होता , इनका बनाया घी का स्वाद भी बड़ा गजब था , आसपास इलाके में इनके जैसा घी कोई नही बनाता था , इनके घी की इतनी डिमांड ठहरी की , क

कल्लू ओर झल्लू

पन्न दा के घर कुतिया ब्याई थी , दो पोथ ( कुत्ते के पिल्ले ) दिये ठहरे उसने , पन्न दा ने उनका नाम रख दिया ठहरा कल्लू ओर झल्लू , बडे मस्त दिखने वाले ठहरे , अजनबी को देख कर भौंकते , पर डर डर के बल , बच्चे ही जो ठहरे , पर थे बडे मस्त।  अपनी माँ के दूध के अलावा पन्न दा द्वारा दिया गया दूध धपड धपड़ पी जाने वाले ठहरे , ओर फिर खाव में दे दौड़ा दौड़ काटते फिरते , उनको देखने में बड़ा आनंद आता था , उनकी बाल सुलभ हरकते बडी मासूम होती थी।  पूरी बखई वाले के दुलारे थे वो दोनों , चिड़िया दिख जाये तो बस उसके पीछे लग जाते दोनों , उसको पकड़ने के चक्कर में कई बार घुरि भी जाते थे भिडो में , फिर भी पीछा करना नही छोड़ते थे , फिर जब थक जाते तो जिबडी ( जीभ ) बाहर निकाल कर हाँफने लगते।  पूरा दिन इधर से उधर दौड़ काटते फिरते , पेट खाली होते ही पन्न दा को ढूँढ़ते , पन्न दा मिल जाते तो , भौंक भौंक कर अपनी भूख के बारे में बताते।  पन्न दा भी जानते थे की क्यों भौंक रहे हैं दोनों , पन्न दा उनके भौंकते ही बोलते , हिटो रे ( चलो रे ) घर को , वहाँ दूँगा तुम्हें दूध। ये सुनते ही कल्

झपरू

झपरू जब छोटा सा था तब , धर दा उसे लेकर आये थे , दूध दही खा खा कर अब थोडा बड़ा हो गया था।   दिन भर हों हों हों करता इधर उधर घूमता रहता था , मधुली ठुल ईजा तो उसकी हों हों से बडी परेशान रहती थी।  वो झपरू के कारण वो गप्पे नही हाँक पाती थी , इसलिये दिन भर झपरू को गलियाते रहती थी।   झपरू भी मधुली ठुल ईजा के पास जाकर हों हों कर ही देता था , ओर मधुली ठुल ईजा की गाली चालू हो जाती थी बल।   त्वैक ( तेरे को ) बाघ रगोड ली जाल ( खींच कर ले जायेगा ) , त्वै ( तुझ ) में कीड़ पड़ जाल (कीड़े पड़ेंगे ) आदि आदि।  फिर लकड़ी दिखाती तो झपरू हों हों करता , उधर से दौड़ काट देता था , इस तरह मधुली ठुल ईजा ओर झपरू के बीच दिन भर द्वंद युद्ध चलता रहता था।  पर कमाल की बात ये थी की झपरू ,मधुली ठुल ईजा के पीछे पीछे ,जंगल जरूर जाता था ,ओर फिर मधुली ठुल ईजा के साथ ही वापस आता।  कभी उसके आगे आगे तो ,कभी उसके पीछे , पर तब हों हों नही करता था बिल्कुल भी।  इस बात पर हँसी भी आती थी , ओर हम कहते भी थे की , ठुल ईजा ( ताई ) यो ( ये ) झपरू याँ ( यहाँ ) तो त्वैक देख बेर ( तुझे देख के )हों हों करू ( करता है ) पर जंगव ( जंगल

घोड़ी वन - Theme forest

हमारे गाँव से थोड़ी ही दूर एक जँगल था, जिसका नाम घोड़ी वन था, जो थोडा़ अजीब सा था। मैं सोचा भी करता की ये अजीब सा नाम क्या पड़ा होगा इस जँगल का, इस जँगल की लम्बाई होगी करीब 5 किमी ओर चौड़ाई होगी लगभग 2 किमी के करीब। इस जँगल की एक ओर विशेष बात ये थी की, जहाँ ओर जँगलों में जंगली वृक्ष हुआ करते हैं, वहीं इस जँगल में जंगली वृक्षों के साथ साथ फलों के पेड भी बहुतायत में थे,साथ ही वृक्ष भी करीने से लगे हुये थे, रास्ते के इर्द गिर्द जहाँ छायादार पेड थे ,वहीं फलों के पेड भी लगे हुये थे, आम, अमरूद के साथ साथ फलों की अनेक प्रजातियों के वृक्ष लगे हुये थे, एक स्थान पर तो लगभग आधा किमी एरिया में पहाड़ी केलों का जँगल ही लगा था, कुल मिलाकर बड़ा अचंभित कर देने वाली जगह थी ये घोड़ी वन। मैं जब भी वहाँ से नदी की ओर जाने के लिये गुजरता, वहाँ सीजन का कोई ना कोई फल जरूर उगा हुआ मिलता था, मुझे ये वन कम ओर फलों का बागान ज्यादा लगाता था। यहाँ से गुजरते समय मेरे मन में एक प्रश्न सैदेव उठता की, क्या ये अपने आप उगे हैं या किसी ने ये लगाए हैं, अगर अपने आप उगे हैं