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पूरन दा उर्फ पुर दा की कहानी

पुर दा जब चौदह पंद्रह साल के होंगें , तब गाँव के कुछ लौंडों के साथ , भाग कर दिल्ली जैसी जगह आ गये थे। 

पहुँच तो गये पर , दिल्ली ठहरी उनके लिये नई , कोई जानकार भी नही ठहरा , तो काम धाम कौन दिलाता। 

रात फुटपाथ पर काटी ओर , दो तीन दिन जेब में बचे पैसों से खाया पिया , जब पैसे भी निमड़ ( खत्म ) पड़े तो , खाने के भी लाले पड़ गये ठहरे।  

काम की तलाश में भटकते रहे  , पर दिल्ली में काम मिलना भी आसान नही हुआ , एक आद दिन भूखे पेट भी सोये , गाँव की याद भी आई , पश्चाताप भी हुआ की , खाली ही इधर को आये , लौटते भी कैसे , पैसे भी नही बचे ठहरे अब तो। 
यों ही भटकते भटकते एक दिन पुर दा , एक ढाबे के बाहर बैठ गये , लोग खाना खा रहे थे , खाने की खुशबू से वातावरण ओर महक रहा ठहरा , पुर दा कातर दृष्टि से लोगों को देख रहे थे , ढाबे में काम करने वाला कुक जो की पहाड़ से ही था , छौंक लगाते लगाते पुर दा को देख रहा था की लौंडा भूखा है। 
उसने इशारे से पुर दा को बुलाया , ओर बोला भाज बेर आर छे न , पुर दा ने होई बोल कर जवाब दिया , कुक बोला नौकरी कर ले , पुर दा तपाक से हाँ बोला। 

उन्हें तो यही चाहिए भी था , कुक बोला ठीक छ पें , मेर हेल्पर बन बेर काम कर लिये , पैली तु खा पी ले , त्वेकं देख बेर लागणों तू भूखे छे। 

पुर दा ने सटासट खाना खाया , दो दिन बाद खाना जो मिल रहा ठहरा , खा कर पुर दा कुक के पास गये , ओर बोले दाज्यू काम बता दियो की करण छ , कुक ने प्याज काटने बिठा दिया , पुर दा ने मन लगा कर काम किया , कुक भी खुश हो गया , ओर बोला सेठ से तेरी तनख़्वाह की बात करता हूँ थोडी देर में , ओर रात में यही ढाबे में सो जाना। 

पुर दा को तो मानो स्वर्ग मिल गया हो , खाना पीना ओर सोना , पुर दा को  तनख़्वाह की परवाह नही थी , क्योंकि उन्हें तो सबसे जरूरी चीजें तो मिल गई थी।  

कुक दूसरे दिन पुर दा को बोला , सेठ कह रहा है खा पी कर 3000/- रुपये दूँगा , इसलिये तू मन लगा कर काम कर , जब भी गाँव जायेगा तो , कुछ ले जा सकेगा घर को। 

पुर दा थे तो मेहनती , मन लगा कर काम किया , साल भर में ही बहुत सीख गये , उनके गुरु कुक ने भी सिखाने में कमी नही छोड़ी। 

धीरे धीरे पुर दा बन गये पक्के कुक , गाँव को भी खर्चा भेजते , तनख़्वाह भी अच्छी हो गई थी , रहना खाना फ्री हुआ , तो अच्छी बचत भी कर ली ठहरी। 

एक दिन गाँव से बाबू का संदेश आया की , तेरा ब्याह करना है , लड़की देख ली है इसलिये मई तक आ जाना। 

पुर दा जुट गये गाँव जाने की तैयारी में , ब्याह का दिन भी आ गया , ब्याह भी हो गया , छुट्टी भी खत्म हो रही थी। 

पर पुर दा तो इस उधेड़बुन में थे की , अभी तो वो अकेले थे , कैसे भी रह लेते थे , अगर स्याणी को दिल्ली लाये तो , कैसे चलेगा बल घर , गाँव भी खर्चा देना ही हुआ , दिल्ली में भी कमरा लेना पड़ेगा , खाने का भी लगेगा , क्या बचेगा बल तब , ऊपर से दिल्ली का सड़ा गला मौसम , प्रदूषण , कैसे रह पायेंगे बल बच्चे। 

ये सोचते सोचते पुर दा के मन में विचार आया , क्यों ना गाँव में ही कुछ काम शुरू किया जाये , जमीन भी ठहरी ही , थोडा मेहनत करने से कुछ तो निकलेगा ही , दिल्ली से आधा भी निकला तो भी बचेगा। 

बस ये सोच पुर दा ने सब्जियों उगा कर बेचने का कारोबार शुरू कर डाला , ओर कुछ महिनों की मेहनत के बाद , अच्छी कमाई भी शुरू हो गई। 

आज पुर दा की सब्जियाँ आसपास के इलाकों में जाती है , पुर दा खुश हैं , सिर्फ इसलिये नही के कमाई अच्छी हो रही है , अपितु इसलिये भी के वो दिल्ली की कोठी जैसे घर में रह रहे हैं , बढ़िया खा रहे हैं। 

ये सब दिल्ली में तो नसीब नही होता , ज्यादा से ज्यादा पच्चीस या पचास गज का दड़बेनुमा घर के मालिक हो जाते , जबकि यहाँ उन्हें वो सब मिल रहा है , जिसकी कल्पना हर कोई करता है।  

मेहनत तो यहाँ भी करनी है तो वहाँ भी , वहाँ दूसरे के लिये करते , यहाँ खुद के लिये कर रहे हैं ! 

स्वरचित लघु कथा 
सर्वाधिकार सुरक्षित

English Version 

When pur da was fourteen, fifteen years old, then he came to a place like Delhi, with a few servants of the village.


 Reached, but staying in Delhi, no information was left for them, so who would get the work done.


 Cut to the sidewalk at night, drank from the money left in the pocket for two-three days, when the money was too low (finished), the food also stopped.


 Wandering in search of work, but it was not easy to get work in Delhi, one day, even on a hungry stomach, I even remembered the village, repented that I came here empty, how could I not return, no money left  Stop now.

 

 Just like this, one day while wandering, Pur da, sat outside a dhaba, people were eating food, the atmosphere stopped smelling with the aroma of food, Pur da Katar was looking at the people with the vision, the cook who worked in the dhaba  Kee was from the mountain, while staring at Purda, he was seeing that the maid was hungry.

 4


 He called Pur da by gesture, and said bhaj ber ar chhe, Pur da replied with a hoi, said the cook, do the job, said yes to Pur da Tapak.


 He wanted this too, the cook said, well six, become a helper, make a plum work, eat and drink the pallets, look at you, you will be hungry.


 Pur da ate sattasat food, after two days, the food which was getting available, went to Pur da cook, and said Daajyu kaam kya diya karan ch, the cook got the onions chopped, Pur da worked hard  , Cook also became happy, and said to Seth, I talk about your salary in a while, and sleep in this dhaba at night.


 Pur da feels as if he has got heaven, drinking food and sleeping, Pur da did not care about salary, because he had got the most important things.


 The cook said to Pur da on the second day, Seth is saying that after drinking the food I will give Rs 3000 / -, so you can work hard, whenever you go to the village, you can take something home.


 If he was a teacher, he worked hard, worked diligently, learned a lot within a year, his teacher Cook also did not miss out on teaching.


 Gradually, the cooks became pure cooks, sending expenses to the village as well, salary was also good, food became free, so it saved well.


 One day Babu's message came from the village, "You have to marry me, you have seen the girl, so come by May".


 Pur da got ready in preparation for going to the village, the wedding day also came, the marriage was done, the holiday was also coming to an end.


 But Pur da was in this turmoil, yet he was alone, how could he have lived, if he had brought the Syani to Delhi, how would the force go home, even the village had to spend, Delhi would have to take room, to eat.  Also, what will be the force left then, Delhi's rotten throat weather, pollution, how will the children be able to live?


 While thinking this, the idea came in the mind of Pur da, why not start some work in the village itself, even if the land is stagnant, some work will come out of it, even half of it will be left from Delhi.


 Just this thinking started the business of growing and selling vegetables, and after a few months of hard work, started earning well.


 Today, Pur da's vegetables go to the surrounding areas, Pur da is happy, not only because he is earning well, but also because he is living in a house like Delhi's Kothi, eating well.


 All this is not destiny in Delhi, at most twenty-five or fifty yards would become the owner of a shimmering house, whereas here they are getting everything that everyone imagines.


 You have to work hard here and there too, and do it for others there, and here you are doing it for yourself!


 Scripted short story

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