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दिसंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कुलोमणि का भुट्टा

कुलोमणी जोशी ब्रहामण कुल में जरूर पैदा हुआ , पर पढ़ाई नही करी ठहरी , ऐसा नही की घर वालों ने स्कूल नही डाला ठहरा , पर कुलोमणी का मन लगे तब स्कूल जाता ना। घर से झोला लेकर रोज निकलता ओर आधे रास्ते से गायब ,कभी ऊँचे डाँडे में टाइम बीता देता तो 'कभी गाड (नदी ) में जाकर मछली पकड़ता रहता ऐसे ही दिन बीता दिये ठहरे ओर रह गया ठहरा अनपढ़।  बोज्यू ने कितनी बार खूब चूटा ( मारा ) भी पर कुलोमणी को नही पढ़ना था सो नही पढ़ा , साथ के सभी ब्रहामण पुत्र पूजा पाठ करवाने लगे पर कुलोमणी को इसकी क ख ग भी नही आती थी।  इधर बोज्यू कभी कभी बोलते साला काहे का कुलोमणी कुल खामणी निकला ये , पता नही कैसे पेट भरेगा , पूजापाठ के काम का तो है नही।  तब कुलोमणी की ईजा बोलती , करेगा कुछ देख लेना , पूजापाठ ना सही तो कुछ ओर करेगा , ऐसा मत बोला करो बल तुम इसको , इकलौता है भाग गया तो क्या करेंगे बल ,  पर कुलोमणी कहाँ भागने वाला था , उसे तो ये पहाड़ नही जाने देते थे।  थोडा ओर बड़ा हुआ तो , समझ आई की कुछ करना पड़ेगा , बोज्यू की पूजापाठ अब कम हो चली थी , इधर उधर ज्यादा भाग नही पाते थे।  पर वो करे तो क्या करे , बोज्यू का

बौजी ओर गोप्प दा

बौजी गोप्प दा की घरवाली हुईं, बौजी ठहरी एकदम सीधी साधी,पर बहुत दुख देखे ठहरे बौजी ने अपने जीवन में,माँ बाप थे नही, तो ठुलबौज्यू ने पाला था उन्हें, बौजी की ठुलईजा को बौजी फूटी आँख नही सुहाती थी,शायद वो एक ओर लड़की का बोझ नही उठाना चाहती थी, पर वो लोकलाज के चलते बौजी को पालने को मजबूर थी, पर गुस्से से वो दिनभर बौजी को गालियाते रहती थी, बौजी से घर का सारा काम करवाया जाता, बदले में मिलता तो, रूखा सूखा खाना वो भी ,ले पेट चीर ले आपण डायलॉग के साथ। बौजी चुपचाप सब कुछ सहती थी, क्योकिं उन्हें पता था के, जैसा भी है पर उनके लिये सुरक्षित है ये स्थान , बौजी को जो बोला जाता, बौजी वो चुपचाप कर दिया करती ,ठुलईजा के बच्चे भी बौजी को परेशान करते थे। दुखों के बीच पली बौजी अब बडी हो चली थी,ओर उसको बडी होते देख, बौजी की  ठुलईजा इस चिंता में पतली हो रही थी के, बौजी का ब्याह करना पड़ेगा, इसके चलते बौजी की ठुलईजा ओर चिडचिडी हो गई थी, इसलिए अब वो बौजी को ओर परेशान करने लग गई थी। बौजी के लिये उसकी बढ़ती उम्र दुखदाई हो गई थी, इधर बौजी की ठुलईजा का पारा सातवें आसमान म

सुन्नपट - Silence

सुन्नपट - Silence धनुली आमा अपने घर के कोने में बिल्कुल अकेली बैठी दिखी तो, मैं उनके हालचाल जानने उनके पास चल दिया, काफी सालों बाद मिलना हुआ, अब काफी बूढ़ी हो चली थी। आमा से आसल कुशल पूछी तो आमा बोली पोथिया अब की आसल कुशल हूँ हम बूड़ा की, बस दिन काटीनी जस्ये तैस्ये। आमा का काफी बड़ा मकान था, या ये कहो की गाँव का सबसे बड़ा मकान धनुली आमा लोगों का था, बड़ा सा मकान, भरा पूरा परिवार था, बरसों बाद आज देखा तो उजाड़ सा हो चुका था, अब इस घर में आदमी के नाम पर ,कोई था तो वो थी बस आमा। आमा के परिवार के सदस्य एक एक करके पलायन कर चुके थे, बड़ा बेटा जयपुर तो छोटा बेटा दिल्ली में अपने परिवार सहित बस चुके थे, नही गई तो बस आमा,क्यों नही गई पूछने पर आमा ने जवाब दिया की, सारि उमर याँ काट राखी, मरण बखत जाबेर की करूँ, ओर उस्ये ले मेर मन न लागुन वाँ, क्याप जस लागु पोथिया, मेर लीजी तो याँई भल भै। आमा का ये जवाब उत्तराखण्ड के अधिकाँश बुजुर्गो का होता है, उनका अपनी जन्मभूमि, अपनी विरासत, अपनी संस्कृति व अपने लोगों से लगाव ,उन्हें अपनी जमीन से दूर नही होने देते। आमा लाख परेशानी के बावजूद भी यहाँ से नही जा

परुली आमा

परुली आमा के गाँव के ग्राम प्रधान द्वारा, गाँव में कोई विकास नही करवाने से, गाँव काफी पिछड़ गया था, ओर लोग गाँव छोड़ छोड़ कर जा रहे थे,ये देखकर परुली आमा दुखी भी थी ओर गुस्से में भी थी। गाँवों के विकास के लिये सरकार द्वारा गाँवों को काफी पैसा मिलता है ,पर ग्राम प्रधान पता नही क्या करते हैं उन पैसों का ,के गाँव जस के तस दिखते हैं, ओर विकास कार्यो के लिये आई धनराशि खत्म हो जाती है,अगर गाँव में किसी का विकास होता दिखता है तो ,वो है ग्राम प्रधान ,उसके अलावा तो सब जैसे थे, वैसे ही नजर आते हैं। परुली आमा भी ये सब बरसों से देखती आ रही थी, उन्हें गाँव में विकास नाम की चीज भी दिखाई नही देती थी, ऊपर से जैसे ही चुनाव आया तो ,वर्तमान प्रधान ने अपनी पत्नी को चुनाव में खडा करने की घोषणा कर डाली। बस फिर क्या था ये सुनते ही परुली आमा का गुस्सा फूट पड़ा,ओर वो ग्राम प्रधान के घर जाकर बोली, जब तू प्रधान छे, तब तो त्वैल क्या न कर, ओर चुनाव आते ही, अब तू अपण स्याणी कें ठाड़ करण छ, थोड़ा शरम छ की नहा,या बस पैंस कमौण छ,आमा गुस्से में प्रधान को बोली, देख रे किशन भौत है गो, यौ बार कोई ओर बनौल प्रधान, ये

कहानी शिब्ब दा की - Story of shibb da

कहानी शिब्ब दा की गाँव के सारे लोग शिब्ब दा को शिब्ब दा कह कर ही पुकारते थे उनको, अब चाहे वो बड़ा हो या बच्चा। शिब्ब दा भी शायद आदि हो गये थे ,उन्हें कोई फर्क नही पड़ता था की कौन किस तरह संबोधित करता है। शिब्ब दा के आगे पीछे अपना कहने को कोई नही था, ना ही कोई खेती की जमीन थी, कहते हैं की बचपन में ही उनके ईजा बौज्यू मर गये थे,ओर शिब्ब दा को बच्चा देख लोगों ने उनकी जमीनें दबा ली, जायदाद के नाम पर अब उनके पास एक छोटी सी कुड़ी थी ,जिसमें शिब्ब दा अकेले रहते थे। अपनों के द्वारा लूटे गये शिब्ब दा के पास खाने कमाने लायक कोई साधन नही बचा होगा, जिससे वो अपना गुजारा कर सकें, तब शायद उन्होने दूसरों के जानवरों को चराने का काम शुरू किया होगा। शिब्ब दा की शादी भी नही हो पाई  थी, या ये कहलो की उनका अपना कहलाने वाला कोई ऐसा व्यक्ति नही था जो उनके लिये कहीं रिश्ते की बात करता, इसलिए शिब्ब दा अब अकेले अपनी जिंदगी गुजार रहे थे,अब  उनकी उम्र भी लगभग 70 के करीब हो चली थी। शिब्ब दा की दिनचर्या सुबह जल्दी शुरू हो जाती, वो सबसे पहले नित्यकर्म से निपटते ओर फिर आटा गूँथ कर 4 मोट