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कहानी शिब्ब दा की - Story of shibb da

कहानी शिब्ब दा की
गाँव के सारे लोग शिब्ब दा को शिब्ब दा कह कर ही पुकारते थे उनको, अब चाहे वो बड़ा हो या बच्चा।

शिब्ब दा भी शायद आदि हो गये थे ,उन्हें कोई फर्क नही पड़ता था की कौन किस तरह संबोधित करता है।

शिब्ब दा के आगे पीछे अपना कहने को कोई नही था, ना ही कोई खेती की जमीन थी, कहते हैं की बचपन में ही उनके ईजा बौज्यू मर गये थे,ओर शिब्ब दा को बच्चा देख लोगों ने उनकी जमीनें दबा ली, जायदाद के नाम पर अब उनके पास एक छोटी सी कुड़ी थी ,जिसमें शिब्ब दा अकेले रहते थे।
अपनों के द्वारा लूटे गये शिब्ब दा के पास खाने कमाने लायक कोई साधन नही बचा होगा, जिससे वो अपना गुजारा कर सकें, तब शायद उन्होने दूसरों के जानवरों को चराने का काम शुरू किया होगा।

शिब्ब दा की शादी भी नही हो पाई  थी, या ये कहलो की उनका अपना कहलाने वाला कोई ऐसा व्यक्ति नही था जो उनके लिये कहीं रिश्ते की बात करता, इसलिए शिब्ब दा अब अकेले अपनी जिंदगी गुजार रहे थे,अब  उनकी उम्र भी लगभग 70 के करीब हो चली थी।
शिब्ब दा की दिनचर्या सुबह जल्दी शुरू हो जाती, वो सबसे पहले नित्यकर्म से निपटते ओर फिर आटा गूँथ कर 4 मोटी मोटी रोटी पकाते,ओर उसे साथ लेकर  गाँव की ओर चल देते ,गाँव में पहुँच कर लोगों को आवाज लगाते की , मैं पधानक वाँ जब तक चाहा पी बेर ओं छू , सब अपण अपण गोर बकार खोल दिया , फिर वो पधान ज्यूँ के घर जाकर एक गिलास चाय हड़काते ओर पधान ज्यूँ के गौरू बकारों को लेते हुये, अन्य चरने वाले जानवरों को लेकर जंगल की ओर चल देते।

शिब्ब दा रोज सुबह 9 बजे के आसपास जानवरों को हाँकते हुये, पास के ऊँचे पहाडों की ओर निकल जाते, जहाँ जानवर दिन भर चरते,ओर फिर दोपहर 2 - 3 के आसपास गाँव लौट आते,फिर सबके जानवर उनके घरों तक छोड़ कर घर आकर खाना पकाते।
शिब्ब दा को उस दिन थोडा़ आराम मिल जाता था, जब किसी दिन कोई उन्हें खाना खिला देता था, क्योकिं उस दिन शिब्ब दा को घर में पकाने की झंझट नही करनी पड़ती।

वैसे तो शिब्ब दा अकेले थे, पर उनका एक ऐसा साथी था, जो हमेशा उनके साथ रहता था, वो था उनके साथ रहने वाला झब्बू कुकुर, शिब्ब दा ने उसे तबसे पाला था, जब वो बहुत छोटा था, उसकी आँखें भी नही खुली थी, झब्बू की माँ को बाघ उठा ले गया था, पर बच्चे बच गये थे, उन्ही बच्चों में से इस झब्बू को शिब्ब दा उठा लाये, ओर आज यही झब्बू शिब्ब दा का सबसे खास दगडी है,झब्बू शिब्ब दा के साथ जानवरों को चराने जंगल भी जाता ओर उनका ख्याल भी रखता है, शिब्ब दा का आधा काम तो झब्बू ही कर लेता है।
शिब्ब दा ने सारी जिंदगी यूँ ही गुजार दी थी, पर एक चीज गौर करने लायक थी के, इतने धोखे, अकेलापन ओर अभावों भरी जिंदगी झेलने वाले शिब्ब दा के चेहरे से कोई भाव प्रकट होते नही दिखते थे, बल्कि वो एक सांसारिक मोह माया को त्यागे साधु की भाँति दिखते थे।

तभी तो शिब्ब दा ,जो दे उसका भी भला, ओर जो ना दे उसका भी भला ,कहावत को मानने वाले इंसान थे,ओर ना काहूँ से दोस्ती, ना काहूँ से बैर, सिद्धांत को मानने वाले इंसान थे।

स्वरचित लघु कथा 

सर्वाधिकार सुरक्षित

कहानी शिब्ब दा की हिंदी में
गाँव के सारे लोग शिब्ब दा को शिब्ब दा कह कर ही पुकारते थे उनको, अब चाहे वो बड़ा हो या बच्चा।

शिब्ब दा भी शायद आदि हो गये थे ,उन्हें कोई फर्क नही पड़ता था की कौन किस तरह संबोधित करता है।

शिब्ब दा के आगे पीछे अपना कहने को कोई नही था, ना ही कोई खेती की जमीन थी, कहते हैं की बचपन में ही उनके माता पिता मर गये थे,ओर शिब्ब दा को बच्चा देख ,लोगों ने उनकी जमीनें दबा ली, जायदाद के नाम पर अब उनके पास , बस एक छोटा सा घर था ,जिसमें शिब्ब दा अकेले रहते थे।

अपनों के द्वारा लूटे गये शिब्ब दा के पास कमाने लायक कोई साधन नही बचा होगा, जिससे वो अपना गुजारा कर सके, तब शायद उन्होने दूसरों के जानवरों को चराने का काम शुरू किया होगा।

शिब्ब दा की शादी भी नही हो पाई  थी, या ये कहलो की उनका अपना कहलाने वाला कोई ऐसा व्यक्ति नही था जो उनके लिये कहीं रिश्ते की बात करता, इसलिए शिब्ब दा अब अकेले अपनी जिंदगी गुजार रहे थे,अब तो उनकी उम्र भी लगभग 70 के करीब हो चली थी।

शिब्ब दा की दिनचर्या सुबह जल्दी शुरू हो जाती, वो सबसे पहले नित्यकर्म से निपटते ओर फिर आटा गूँथ कर 4 मोटी मोटी रोटी पकाते,ओर उन्हें अपने साथ लेकर  गाँव की ओर चल देते ,गाँव में पहुँच कर लोगों को आवाज लगाते की , मैं प्रधान के वहाँ जब तक चाय पीकर आता हूँ , सब अपने अपने गाय बकरियों को खोल देना , फिर वो प्रधानके घर जाकर एक गिलास चाय पीते ओर प्रधान के गाय, बकरियों को लेते हुये, अन्य लोगों के चरने वाले जानवरों को लेकर जंगल की ओर चल देते।

शिब्ब दा रोज सुबह 9 बजे के आसपास जानवरों को हाँकते हुये, पास के ऊँचे पहाडों की ओर निकल जाते, जहाँ जानवर दिन भर चरते,ओर फिर दोपहर 2 - 3 के आसपास गाँव लौट आते,फिर सबके जानवर उनके घरों तक छोड़ कर घर आकर खाना पकाते।

शिब्ब दा को उस दिन थोडा़ आराम मिल जाता था, जब किसी दिन कोई उन्हें खाना खिला देता था, क्योकिं उस दिन शिब्ब दा को घर में पकाने की झंझट नही करनी पड़ती।

वैसे तो शिब्ब दा अकेले थे, पर उनका एक ऐसा साथी था, जो हमेशा उनके साथ रहता था, वो था उनके साथ रहने वाला झब्बू कुत्ता , शिब्ब दा ने उसे तबसे पाला था, जब वो बहुत छोटा था, उसकी आँखें भी नही खुली थी, झब्बू की माँ को बाघ उठा ले गया था, पर बच्चे बच गये थे, उन्ही बच्चों में से इस झब्बू को शिब्ब दा उठा लाये, ओर आज यही झब्बू शिब्ब दा का सबसे खास दगडी है,झब्बू शिब्ब दा के साथ जानवरों को चराने जंगल भी जाता ओर उनका ख्याल भी रखता है, शिब्ब दा का आधा काम तो झब्बू ही कर लेता है।

शिब्ब दा ने सारी जिंदगी यूँ ही गुजार दी थी, पर एक चीज गौर करने लायक थी के, इतने धोखे, अकेलापन ओर अभावों भरी जिंदगी झेलने वाले शिब्ब दा के चेहरे से ,कोई भाव प्रकट होते नही दिखते थे, बल्कि वो एक सांसारिक मोह माया को त्यागे साधु की भाँति दिखते थे।

तभी तो शिब्ब दा ,जो दे उसका भी भला, ओर जो ना दे उसका भी भला ,कहावत को मानने वाले इंसान लगते थे,ओर ना काहूँ से दोस्ती, ना काहूँ से बैर, सिद्धांत को मानने वाले इंसान थे।

स्वरचित लघु कथा 

सर्वाधिकार सुरक्षित

Story of Shibb Da in english
 All the people of the village used to call Shibb Da as Shibb Da, now whether he is an elder or a child.

 Shibb da was probably too early, he didn't care who addressed how.

 There was no one to say behind Shibb Da, nor was there any agricultural land, it is said that his parents had died in childhood, and seeing Shibb Da as a child, people buried their land, the name of the property  But now all they had was a small house in which Shibb da lived alone.

 Shibb Da, who was robbed by his loved ones, would not have had any means to earn, so that he could live on his own, then perhaps he would have started the work of grazing the animals of others.

 Shibb da could not even get married, or it should be said that there was no person called his own who would talk about a relationship for him, so Shibb da was now living his life alone, now his age is also about 70.  It was close.

 Shibb Da's daily routine would start early in the morning, he would first deal with the routine and then knead the dough and cook 4 thick rotis, and take them with him and walk towards the village, reaching the village and calling the people, I am the head.  That until I come there after drinking tea, all untied their cow goats, then they go to the head's house to drink a glass of tea and take the head's cow, goats, other people's grazing animals and walk towards the forest.  .

 Shibb da would drive the animals around 9 o'clock in the morning, go out to the nearby high hills, where the animals graze throughout the day, and then return to the village around 2 - 3 in the afternoon, then leaving all the animals at their homes and coming home.  Cooking food

 Shibb Da used to get some rest on that day when someone would feed him some day because Shibb Da did not have to bother about cooking at home that day.

 Although Shibb da was alone, but he had such a companion, who was always with him, that was the dog who lived with him, Shibb da had raised him since he was very young, his eyes did not even open.  , Jhabbu's mother was taken away by the tiger, but the children were saved, Shibb Da brought this Jhabbu from among those children, and today this is the most special dagdi of Jhabbu Shibb Da, Jhabbu grazing animals with Shibb Da in the forest  Even when he goes and takes care of them, Jhabbu does half the work of Shibb Da.

 Shibb Da had spent his whole life like this, but one thing was worth noting that, from the face of Shibb Da, who has faced so much deception, loneliness and deprivation, no emotion was visible, but he was a worldly fascination.  He looked like an abandoned monk.

 That's why Shibb da, whoever gives good to him, and whoever does not give good to him, seemed to be a person who believed in the proverb, nor friendship with anybody, nor hater from anybody, he was a special person who believed in principles.

 composed short story

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