सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

मार्च, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पहाड़ की नारी सब पर भारी

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से अत्यंत विषम होते हैं,ओर इन्ही क्षेत्रों में पहाड़ की नारी अत्यंत सहजता से सभी कार्य कर लेती है। इसलिए कहा भी जाता है की पहाड़ की नारी सब पर भारी ओर ये गलत भी नही है, जिस तरह से यहाँ की नारी अपना दायित्व निभाती है, उनपर ये कहावत सटीक बैठती है। जंगल से घास ,लकड़ियाँ लाने से लेकर, खेत खलिहान में काम करना ओर घर के चौके चूल्हे से लेकर अनेकों कार्य जिस तरह से करती है वो काबिलेतारीफ है। हम जब भी गाँव जाते तब यही सब देखने को मिलता, हमारी आमा से लेकर ठुलईजा व आसपास की अन्य महिलाएं ऐसे ही थी। हम जिस वक़्त अपना बिस्तर नही छोड़ पाते ,तब वो नहा धो कर चूल्हे पर दूध गरम कर चाय चढ़ा चुकी होती थी, पीस्स्यु ( आटा ) गूंध कर रोटी बनाने की तैयारी हों चुकी होती थी, एक चूल्हे में सब्जी अधपकी हों चुकी होती थी। पता नही वो चैन से सोती भी थी के नही, क्योकिं इतना काम करने के बाद कोई शहरी नारी यों इतनी सुबह तो पहले तो उठ नही पाए ओर अगर उठ जाए तो इतना काम ना करे, पर पहाड़ की नारी के लिए तो ये रोजमर्रा की सी बात होती है। उस पर भी विशेष बात ये

आस्था - Faith

आस्था - Faith गाँव के मंदिर में हर साल की तरह इस बार भी सामूहिक पूजा होनी थी,जिसमें गाँव के सारे लोगों को अपनी तरफ से सहयोग करना जरूरी था,क्योकिं तभी सामूहिक पूजा संपूर्ण मानी जाती थी,ये परम्परा सदियों से चली आ रही थी। ईश्वर पर अत्यधिक आस्था रखने वाली, सरुली आमा इस बार असमंजस थी के वो अपनी तरफ से क्या सहयोग दे,क्योकिं वो गाँव में अकेली रहती थी, बाल बच्चें थे नही ओर बुढ़ापे के कारण व बूबू के जाने के बाद ,खेती पाती भी छूट गई। वृद्धा पेँसन से गुजारा चल रहा था वो ही इस बार अब तक मिली नही थीं। वो इस उधेड़बुन में थी के वो आखिर कैसे अपना हिस्सा दे पायेगी,उसे समझ नही आ रहा था की आखिर ईश्वर उसकी ये क्या परीक्षा ले रहा है। उसकी समस्या ये नही थी की वो क्या दे, बल्कि उसकी समस्या ये थी उसकी वजह से गाँव की वो सदियों पुरानी परम्परा ना टूट जायें जो सदियों से चली आ रही थी। सरुली आमा का मन उदास हो गया था ओर ज्यों ज्यों पूजा का दिन नजदीक आता गया उसका मन ओर उदास होता चला गया,वो कुल देवता से प्रार्थना करने लगी। हे नारायणा ( हे प्रभु ) कैस मुश्किल में ( कैसी मुश्किल में ) खित दे तैवेल ( डाल दिया तूने ) तेर था

आमा ओर कऊल दी

जसुली आमा ( दादी ) को लेने उनका बेटा शहर से आया था, ओर आमा तब से ही दुखी थी,उसने साफ कह दिया था की वो शहर नही जायेगी। बेटा अपनी जिद में अड़ा था की चलना होगा, क्योकिं यहाँ उसकी देखभाल करने वाला कोई नही है ओर अवस्था हो चली है, इसके अतिरिक्त लोग बातें बना रहे हैं की माँ को गाँव में छोड़ रखा है, एक प्राणी को नही पाल सकता। दोनों ही धर्म संकट में थे, बेटा अपनी जगह सही था, ओर माँ अपनी जगह। आमा ( दादी ) पुरखों की जमीन, अपने गाँव व यहाँ के लोगों को छोड़ना नही चाहती थी।  जसुली आमा ( दादी ) ने बेटे से कहा सारि जिंदगी याँई काट राखे ( सारी जिंदगी यही काटी है ) अब मरण बखत वाँ की करुण (अब अंतिम समय वहाँ क्या करूँगी) याँ अपण लोग छ्न (यहाँ अपने लोग हैं ) याँई रौन दे मैं कें ( यही रहने दे मुझे )। अंत में थक हार कर बेटा मान गया ओर जसुली आमा ( दादी ) से बोला ठीक है यही रह, ये फोन भी रख ले, रोज बात करना ताकि तेरी चिंता ना रहे, इस तरह आमा (दादी ) शहर जाने से बच गई। जसुली आमा ( दादी ) के गाँव में ही रुक जाने से गाँव वालों के अलावा तब सबसे ज्यादा किसी को खुशी हुई तो वो थी आमा की हमउम्र कऊल दी ( दीदी

दन दा

दन दा जंगलात विभाग में पतरोल (जंगल सुरक्षा गार्ड ) के पद पर कार्यरत थे , गाँव से ही सटे जंगल में उनकी ड्यूटी थी , हमेशा से हम लोगों ने उन्हें इन्हीं जंगलों में भटकते देखा था।  पहले हमें लगता था यें यूँ ही इन जंगलों में भटकते फिरते हैं , बाद में समझ आई के ये तो नौकरी में हैं , वो भी जंगलात विभाग में।   हमें वो भटकते हुये इसलिये लगते थे क्योंकि हमारे लिये नौकरी का मतलब ऑफिस में जाना जो होता था , जबकि दन दा रोज सुबह जंगल की तरफ निकल जाते ओर शाम पड़े घर लौटते।   उनकी वजह से जंगल में खूब हरियाली ठहरी , किसी को भी जंगल का नुकसान नही करने देते थे , प्यार से लोगों को जंगल होने के फायदे समझाते थे , उनके क्षेत्र में हमने वनाग्नि की घटना कभी नही सुनी।  कहते थे जंगल हैं तो हम हैं , ये नही रहेंगे तो हमारा जीवन संकट में आ जायेगा , जंगल ही उनकी ज़िंदगी का अहम हिस्सा थी  , हमें जहाँ बोरियत भरी सी लगती थी उनकी ज़िंदगी , वहीं उन्होंने जंगल को ही अपना जीवन बना लिया था।  उन्हें देख कर मुझे डिस्कवरी वाले बियर ग्रिलस की याद आ जाती है , फर्क सिर्फ इतना सा है की बियर ग्रिलस को स

नन्ही नन्नू

नन्ही नन्नू  मेरे गाँव में हमारे कुड़ी ( मकान ) से कुछ दूरी पर ही रहती थी छोटी सी बच्ची, बड़ी प्यारी लगती थी, अपनी ईजा ( माँ ) के बैगेर एक पल भी नही रह सकती थी, इसी कारण उसकी ईजा ( माँ ) जहाँ भी जाती उसे साथ ले जाती थी। वो छोटी सी बच्ची बड़ी हँसमुख थी, बस उसकी ईजा ( माँ ) उसे दिखती रहनी चाहिये, मैनें उसे नाम दिया था नन्नू ,तब से उसको करीब करीब सब नन्नू ही कह कर बुलाने लग गये ठहरे। देखते ही देखते घुटने से चलने वाली नन्नू , धीरे धीरे बड़ी होती चली गई ,इतनी की एक दिन जब मैं काफी साल बाद गाँव गया तो, वो घास का पुला काट कर लाती मिली।  ईजा ( ताईजी ) बोली देख येतुक ठुल हैंगे नन्नू ( देख इतनी बड़ी हो गई नन्नू )। मैं उसे देखता ही रह गया, क्योकिं मैनें तो उसे घुटने के बल चलते देखा था, या धक्के लगते हुये चलते। मैनें ठुल ईज ( ताईजी ) से पूछा, ये अब अपनी ईजा के बिना रह लेती है या पहले की ही तरह करती है अब भी। इस पर ठुल ईजा ( ताईजी ) बोली, अब ले उसी छ ( अब भी वैसी है  ,ईजा आज ले चाँ ( माँ आज भी चाहिये ) बस फर्क यो आ की ( बस फर्क ये आया की ) , आसपास अब लह जाँ बिन ईजेक ( आसपास चली ज

अनदेखा उत्तराखण्ड - Unseen Uttrakhand

उत्तराखंड का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत व अविस्मरणीय है। चीड़, बाँज व देवदार  के घने वृक्षों से आछाँदित वन ,घास से ढ़की हुई भूमि ऐसे लगती है मानो किसी ने हरी चादर बिछा दी हो।  जहाँ दिन के समय गुनगुनी धूप होती है वहीं रात को ठंड बढ़ जाती है आसमान में तारों से भरा दिखाई देता है। उत्तराखंड की सुंदरता की तरह यहाँ के लोगों की प्रकृति भी बहुत ही सौम्य और सरल होती है। यहाँ  रहने वाले सभी लोग भोले-भाले और सरल स्वभाव के होते हैं,जिनमें अपनेपन की भावना भरी होती है। यहाँ बोली जाने वाली भाषा में  अलग ही मिठास है ,राजस्थानी, नेपाली, संस्कृत सहित अनेकों भाषाओं से युक्त शब्द का प्रयोग यहाँ की बोली में समिश्रित हैं। पर्यटन की दृष्टि से अत्यंत समृद्घ ये भूभाग, आने वाले पर्यटकों पर अविस्मरणीय छाप छोड़ जाता है, यही कारण है के यहाँ आया पर्यटक बार बार यहाँ आना चाहता है,अगर आपको उत्तराखण्ड की खूबसूरती, यहाँ की संस्कृति, यहाँ के रहन सहन के बारे में जानना हो तो ,कोशिश करिए की कोई ग्रामीण क्षेत्र के होम स्टे में आपको रहने का मौका मिल जायें, जहाँ ना आप केवल यहाँ की स

मेजर का कुत्ता

धन दा के साले का लड़का ,एन डी ए में सलेक्ट हो गया ठहरा कुछ साल पहले, अब मेजर बन गया ठहरा। इस बार जब वो गाँव आया तो, धन दा ने उसे अपने घर बुलाया,  ओर गाँव वालों पर थोड़ा रौब दिखाने के लिये ,उन्हें भी खाने में बुलाया ठहरा। साले के लड़के को शिकार ( मीट ) अच्छा लगाता था तो, धन दा ने खाने में शिकार ( मीट ) बनाया , ओर इसके लिये उसने एक बकरा भी खरीद लिया। धन दा के होलदार ( हवलदार ) , सुबदार ( सूबेदार ) तो बहुत रिश्तेदार थे ,पर मेजर रैंक का तो ये पहला ठहरा, सो तैयारी भी उसी लेबल की करी ठहरी धन दा ने ,इसलिए धन दा सुबह से ही तैयारी में जुट गये ,आखिर गाँव में पहली बार मेजर जो आने वाला ठहरा। धन दा ने गाँव के सबसे शानदार शिकार पकाने वाले, शेर दा को बुलाया ठहरा, ओर शेर दा को अफसरों के हिसाब से बनने वाले दुडबुड ( गाढा ) शिकार ( मीट ) पकाने को बोला। रोट ( रोटी ) पकाने के लिये भी  बाखई में रहने वाली गोपुली ठुल ईजा को बोल रखा ठहरा ,क्योकिं गोपुली ठुल ईजा बिन डजी ( बिन जली ) रोटी पकाती थी। धन दा की तरफ से पूरी तैयारी थी, पिसे मिर्च मसालें भी , पहली बार खरीद कर लाने पड़े थे धन दा को दुकान से, आज त