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जून, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भाँग की चटनी

हम उत्तराखंडियों को कोई चीज अच्छी लगे या ना लगे, पर भाँग की चटनी या भाँग वाला नमक जरूर अच्छा लगाता है,इतना अच्छा की जिस दिन भाँग की चटनी बनी होती, उस दिन दो तीन रोटी एक्स्ट्रा खा लेते हैं। माँ भी इस बात को जानती है, इसलिए उस दिन ओर दिन से ज्यादा आता गूँथ लेती है, भाँग वाली चटनी का स्वाद ही ऐसा होता है की भूख बढ़ जाती है। चटनी बनाने के लिये जब भाँग के बीजों को तवे में सेंका जाता है, उसे सूँघने का अपना ही अलग मजा होता है, फिर सिल बट्टे पर हरी मिर्ची, हरा धनिया, कुछ पुदीने के पत्तों के संग जब भाँग के बीज पिसे जाते हैं तो, उसे देख कर तो मुँह में पानी ही आ जाता है, पेट की आँतडियाँ उसे खाने के लिये कुलबुलाने लगती हैं। जब हम छोटे थे तो चटनी को लेकर भाई बहिनों में झगड़ा भी हो जाता था, क्या दिन थे वो भी बचपन के, आज भी बेहद पसंद है मुझे तो ये भाँग की चटनी। मेरे मित्रों को भी काफी खिलाई है चटनी स्कूल के दिनों में, पर उन्हें ये नही बताता था की, ये भाँग की चटनी है, बाहर के लोग भाँग का नाम सुनते ही डर जो जाते हैं, पर उन्हें ये नही पता की भाँग का बीज नशीला नही होता, पर डर तो डर होता है, इसल

रम्मू का दुख

रम्मू गाँव के लोगों के खेत जोतने का काम करता था, बचपन से ही अपने बौज्यू ( पिता ) को हल जोतता देख ओर उनके साथ जाते जाते वो भी हल बाना ( जोतना ) सीख गया था। रम्मू के बौज्यू ( पिता ) जब भी इधर उधर जाते, तब रम्मू ही हल जोतता,जैसे जैसे वो बड़ा होता गया, वैसे वैसे उसने हल जोतने का काम पूरी तरह से अपने हाथ में ले लिया, क्योकिं अब उसके बौज्यू ( पिता ) बूढ़े होने के साथ साथ कमजोर से भी हो गये थे। रम्मू ने हल जोतने के काम के चलते कभी गाँव छोड़कर जाने का भी नही सोचा। रम्मू हल जोतने का काम करने के कारण स्कूल भी ठीक ढँग से नही पढ़ पाया था, पर उसे कभी इस बात का मलाल भी नही हुआ, क्योकिं उसके इस काम से उसका घर आराम से चल रहा था,एक दिन के उसे तब 300 रुपये मजदूरी मिल जाने वाली हुईं, ओर दो वक़्त की चाय तथा दिन का खाना भी। गाँव भर में रम्मू की पूछ ओर ठहरी, लोगों के लिये विशेष जरूरत का सामान सा ठहरा रम्मू, रम्मू भी संतोषी आदमी था, ओर साथ ही काम के प्रति समर्पित व्यक्ति भी, दिये गये काम को मन लगाकर करता, इसलिए गाँव के लोग भी उससे खुश रहते थे। रम्मू के साथ के लड़के, रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ निकल

महान शख्शियत टिंचरी माई - Legend personality Tinchare Mai

महान सख्शियत टिंचरी माई  जिस समय में उत्तराखंड में अधिकांश युवा पीढ़ी शराब और अनेक प्रकार के नशे में डूब रहे थे ,उस समय एक महिला ने ,इस नशे के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया था ,ओर इसे खत्म करने की पुरजोर कोशिश की थी,  इनका वास्तविक नाम दीपा देवी था, संन्यास लेने के बाद इच्छागिरी माई के नाम से जानी गई । इन्होने सामाजिक कुरीतियों तथा धार्मिक अंधविश्वासों का डटकर सामना किया, 50 - 60 के दशक में गढ़वाल क्षेत्र में आयुर्वेद दवाई के नाम पर बिकने वाली शराब ( टिंचरी ) की दुकानों को बंद कराने तथा बच्चों की शिक्षा विशेषकर बालिकाओं की शिक्षा के लिए स्कूलों  का निर्माण कराने में इनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा,ओर तबसे ये टिंचरीमाई के नाम से प्रसिद्ध हो गई। टिंचरीमाई ने तब गढ़वाल क्षेत्र में शराब विरोधी व शिक्षा के क्षेत्र में किये गये आंदोलनों में प्रमुख  भूमिका निभाई दुर्गम तथा घने जंगलों से घिरे हुए दूधातोली क्षेत्र के मज्यूर गाँव में टिंचरी माई का जन्म हुआ था, जब वो दो वर्ष की थीं तो माँ का साया छिन गया था ओर पाँच वर्ष के होते-होते पिता का साया भी सर से उठ गया। उन्हें रिश्ते के चाचा ने पाला ,वह

हमारी धरोहर

पहाड़ों में ना  केवल दृश्य ही सुंदर होते हैं, अपितु वहाँ के मकानों की बनावट भी अत्यंत मनोहारी होती है,लकड़ी व पत्थर से बने मकान व उसकी ढलवाँ ( पाख ) छत उसकी सुंदरता में चार चाँद लगा देती है। ऐसे ही एक पुरानी कुड़ी ( मकान ) मुझे अल्मोड़ा से थोडा़ सा पहले प्युडा होते हुये मुक्तेश्वर जाने वाली सड़क के किनारे दिखा, बिल्कुल खाली पड़ा था, शायद बरसों पहले उसे छोड़ दिया गया था। जब मैनें उसे देखा तो मन में ये सवाल उठता की इतनी सुंदर कुड़ी ( मकान ) को इस तरह क्यों छोड़ दिया गया होगा। सच कहूँ तो ये कुड़ी ( मकान ) मेरे ओर मेरे मित्र के मन मष्तिष्क में इतना घर कर गई थी, मेरा मित्र तो इसे खरीदने के लिये उतावला ही हो उठा, कुड़ी ( मकान ) ना केवल सुंदर थी अपितु आसपास के दृश्य भी अत्यंत सुंदर थे, हरे भरे पेड, रोड साइड पर बनी हुई, शाँत वातावरण से युक्त व व्यापारिक ओर रिहायशी दृष्टि से भी मुफीद जगह थी, वहाँ एक अच्छा होम स्टे भी चलाया जा सकता था। मैनें उस जगह की तस्वीर ली ओर लग गया इसके बारे में जानने के लिए की आखिर इसे ऐसे क्यों ओर किसलिए छोड़ दिया गया, आसपास के लोगों से काफी पता करने के बाद प

तिल्ल दा का कुकुर

कुकुर ( कुत्ता ) पालने वाले लोग अपने कुकुर ( कुत्ते ) से विशेष लगाव रखते हैं,ठीक ऐसा ही लगाव रखते थे तिल्ल दा यानी त्रिलोक सिंह बिष्ट, उनका कुकुर ( कुत्ता ) भी बेहद लगाव रखता था तिल्ल दा से। तिल्ल दा कहीं भी जाये कुकुर उनके साथ ही चलता, ज्यादा बड़ा नही था हालांकि उनका कुकुर, पर बिन तिल्ल दा के उसे चैन नही आता था। तिल्ल दा को वो गाँव में ही कू कू करता घूमता मिला था, शायद कोई छोड़ गया था ,बेहद छोटा था उस वक़्त वो, तिल्ल दा उसे उठा लाये ओर उसे पाला। रोज सुबह शाम एक एक कटोरी दूध व उसमें एक रोटी चूर कर तिल्ल दा उसे देते, ओर वो धपड धपड उसे खा जाता था। अच्छे खानपान की वजह से अब वो गोलमोल सा दिखने लगा था, तिल्ल दा ओर उनकी पत्नी अकेले ही रहते थे, इस कुकुर ( कुत्ता ) के आ जाने से घर में अब हलचल सी बढ़ गई थी, उनका ये कुकुर ( कुत्ता ) दिन भर धमाचौकड़ी मचाता जो रहता था। हमारे घर भी आकर उछल कूद मचा देता था कभी कभी ओर जब उसे डांटो तो भाग कर तिल्ल दा की गोद में दुबक जाता, बड़ा प्यारा लगता था, तिल्ल दा का वो प्यारा कुकुर ( कुत्ता )। तिल्ल दा का भी मन इस कुकुर ( कुत्ते ) के बिना नही लगता था, कहीं

भोटिया समुदाय

जब भी मैं पहाड़ जाता ओर नैनीताल व भवाली में एक विशेष समुदाय के लोगों पर नजर पड़ती, तो वो समुदाय मुझे बड़ा आकर्षित करता था वो थे भोटिया। इन लोगों का पहनावा ओर खानपान मुझे विशेष रूप से आकर्षित करता था, ये लोग अधिकतर व्यापार करते हुये दिखते थे, उनके प्रति जिज्ञासा ने मुझे उनके बारे में ओर ज्यादा जानकारी लेने के लिये प्रेरित किया। ओर इसी के चलते मेरे एक लोकल मित्र क्वीरा जी ने मेरी मदद की, उन्होनें अपने एक भोटिया मित्र से मुझे मिलवाया ओर उसने मुझे जो जो बतलाया, उसमें से कुछ जानकारियाँ, भोटिया जनजाति के बारे में दे रहा हूँ। भोटिया जनजाति एक ऐसा  समुदाय है, जो हिमालय की कठितम परिस्थितियों भी अपना अस्तित्व को बनाए हुये है।  इस जनजाति ने आज भी, अपने गौरवमयी अतीत की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित किया हुआ है,  इस समुदाय की इसी जीवटता ने इसे समृद्ध बना रखा है।  उत्तराखंड में भोटिया रं, शौका, जाड़, तोल्छा और मारछा के नाम से जाने जाते हैं, उत्तराखंड की किसी अन्य जनजाति में इतनी आन्तरिक विविधता व भौगोलिक विस्तार नहीं पाया जाता है,जितना इस जनजाति में है।  भो

जग दा कुड़ी - जग दा का मकान

शहरफाटक से जब भी थोडा सा आगे निकलता तो , एक कुड़ी ( मकान ) मुझे बड़ा आकर्षित करती थी,  सुनसान जगह , आसपास कोई मकान नही , रोड किनारे बनी इस कुड़ी ( मकान ) में पता नही क्या खास बात थी के , मैं बाईक को रोक कर ,आते जाते हमेशा एकटक ,निहारता जरूर था कुछ देर के लिये।  देख कर बड़ा अच्छा लगता था , पर कभी कोई बड़ा व्यक्ति दिखाई नही देता था वहाँ , कुछ बच्चे अवश्य खेलते हुये दिखाई दे जाते थे , वो भी कभी कभार।  बड़ा मन होता था की , कभी कोई बड़ा दिखे तो बात कर लूँ  , इसी बहाने कुड़ी ( घर ) को नजदीक से देखने का मौका भी मिल जाये।  एक दिन ऐसा मौका मिल ही गया , आँगन में एक व्यक्ति बैठा नजर आ गया , मैंनें बाईक रोकी ओर  रामा श्यामा करी तो , बैठे हुये व्यक्ति ने जवाब देते हुये कहा , आ जाओ हो पाणी पी बेर जाला ( आ जाईये पानी पी कर जाना ) , मैं तो चाहता ही ये था , तुरंत से बाईक खड़ी कर ,चल दिया उस कुड़ी ( घर ) की तरफ। पूछने पर पता चला की उनका नाम जगत सिंह पडियार है , उनका गाँव वैसे तो नीचे है , पर रोड पर मकान लगा दिया सात आठ साल से।  बोले मन लगा रहता है बल यहाँ , इधर से चारों तरफ दिखने वाला भी ठहरा , बढ़िया

बचुली घसियारी

पहाड़ों में घास का अपना ही महत्व होता है, ओर उसे काट कर लाने वाली घसियारियों का स्थान भी महत्वपूर्ण होता है, बिन घास के ग्रामीण जीवन की कल्पना करना बेईमानी सा लगाता है, जिसमें पहाड़ों में तो बिन इन घसियारियों के कुछ भी संभव प्रतीत नही, एक तरह से पहाड के ग्रामीण जीवन में ये रीढ़ के समान है, जिसके बिना पहाड़ का ग्रामीण जीवन अधूरा सा है। इसलिए पहाड़ की घसियारियों की अलग ही बात होने वाली ठहरी, बड़े बड़े घुटाव से लेकर छोटे पुले काट कर लाना, वो भी ऐसे ऐसे दुर्गम जगह से की, देख कर ही कलेजा मुँह को आ जाये। ऐसी ही एक घसियारी ठहरी बचुली, घास काटने में उसका मुकाबला शायद ही कोई कर पाये, भेवों ( खड़ी चट्टान ) से लेकर एक दम सीधे रूखो ( पेडों ) से घास काटना उसके लिये बायें हाथ का खेल सा था। उसको घास काटते देखने भर से ही, देखने वालों के दिल की धड़कन ,बढ़ सी जाती थी, पर वो थी की ,आराम से घास काट लेती थी। बचुली पूरे इलाके में घास काटने के मामले में प्रसिद्ध ठहरी, कोई उसके मुकाबले में नही ठहरता था, लोग कहते थे की, ये म्यास ( आदमी ) कम घ्वेड ( हिरण की प्रजाति ) बाकि छ (ज्यादा है ) ओर ये बात सच भी लगती थ