सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

बचुली घसियारी

पहाड़ों में घास का अपना ही महत्व होता है, ओर उसे काट कर लाने वाली घसियारियों का स्थान भी महत्वपूर्ण होता है, बिन घास के ग्रामीण जीवन की कल्पना करना बेईमानी सा लगाता है, जिसमें पहाड़ों में तो बिन इन घसियारियों के कुछ भी संभव प्रतीत नही, एक तरह से पहाड के ग्रामीण जीवन में ये रीढ़ के समान है, जिसके बिना पहाड़ का ग्रामीण जीवन अधूरा सा है।

इसलिए पहाड़ की घसियारियों की अलग ही बात होने वाली ठहरी, बड़े बड़े घुटाव से लेकर छोटे पुले काट कर लाना, वो भी ऐसे ऐसे दुर्गम जगह से की, देख कर ही कलेजा मुँह को आ जाये।

ऐसी ही एक घसियारी ठहरी बचुली, घास काटने में उसका मुकाबला शायद ही कोई कर पाये, भेवों ( खड़ी चट्टान ) से लेकर एक दम सीधे रूखो ( पेडों ) से घास काटना उसके लिये बायें हाथ का खेल सा था।
उसको घास काटते देखने भर से ही, देखने वालों के दिल की धड़कन ,बढ़ सी जाती थी, पर वो थी की ,आराम से घास काट लेती थी।

बचुली पूरे इलाके में घास काटने के मामले में प्रसिद्ध ठहरी, कोई उसके मुकाबले में नही ठहरता था, लोग कहते थे की, ये म्यास ( आदमी ) कम घ्वेड ( हिरण की प्रजाति ) बाकि छ (ज्यादा है ) ओर ये बात सच भी लगती थी, क्योकिं जिस तरह घ्वेड कही भी चढ़ जाता था, ठीक वैसे ही बचुली भी कहीं भी घास काटने चढ जाती थी।
इलाके का शायद ही कोई रुख ( पेड ) बचुली से बचा होगा जिसमें वो चढ़ी ना होगी,बचुली की हिम्मत के आगे , बड़े बड़े रुख ( पेड ) भी बौने से नजर आते,बचुली बडी सहजता से चढ़ उन्हें काट जो देती, जमीन से 50 फिट ऊँचे रुखो ( दरख्तों ) पर बचुली का संतुलन देखने लायक होता,उसे इतनी ऊँचाई पर चढ़ा देख लोग बाग सकते में आ जाते, वैसे इतनी ऊँचाई पर किसी को चढ़ा देख ऐसा होना स्वाभाविक भी है।
बचुली को खुद पर इतना भरोसा कैसे आया होगा, ये सोचने वाली बात थी, फिर एक दिन इसका राज खोला उसके ही गाँव की रहने वाली चंपा ने, चंपा व बचुली बचपन की संगी ( सहेली ) थी, चंपा के अनुसार बचुली को बचपन से ही रुखो ( पेडों ) में चढ़ने का शौक था, इसके चलते वो बचपन से ही, अपनी ईजा ( माँ )  के साथ घास काटने जंगल को जाती थी, ओर धीरे धीरे वो इस काम में इतनी पारंगत हो गई की, कोई उसका मुकाबला नही कर पाता था, माँ ओर बेटी इतना घास काट लाते थे की, वो लूटे के लूटे ( घास के गट्ठर रखने वाला स्टोर ) घास बेच देते थे।
जब बचुली की शादी हो गई तो, उसने ससुराल में भी यही काम शुरू कर दिया, काफी गाय, भैंस पाली ताकि दूध घी ओर घास बेच कर घर में भी आर्थिक सहयोग कर सके, उसकी इसी सोच ने उसे इलाके की प्रसिद्ध घसियारी बना दिया था।

बचुली सुबह होते ही, गाय भैंसों को घास आदि डालती, तब तक उसकी सास चाय ओर नाश्ता बना देती, ओर बचुली खा पीकर अन्य घसियारियों के संग ,निकल लेती जंगल की ओर, दोपहर होने से पहले पहले घास का बड़ा गट्ठर लेकर घर लौट आती।
घर पहुँच कर बचुली दिन का भोजन करती, जो उसकी सास तैयार रखती, फिर होता थोडा़ आराम, शाम के वक़्त खेतों में काम करने निकल पड़ती अपने पति के साथ ओर अँधेरा होने से पहले लौट कर आ जाते।

बचुली के कारण पूरा घर एक्टिव रहता हर चीज का वक़्त होता, खाने से लेकर सोने तक का समय सब समयानुसार ओर उसका परिणाम ये था की, उसके घर में किसी भी तरह की कोई कमी नही थी, अच्छी तादात में दूध बेच लेते थे, साथ ही घी भी बिक जाता ओर घास तो खैर बिकती ही थी, कुल मिलाकर कहा जा सकता था की, बचुली की मेहनत ने एक अच्छा खासा रोजगार खोला हुआ था, जिसे सारा घर मिलकर चला रहा था, ओर इस कारण उसका परिवार पलायन के दंश से भी बचा हुआ था।

स्वरचित कथा 
सर्वाधिकार सुरक्षित

ये कहानी भी पढ़ें : 


कहानी जानकी दीदी की 



    

                   English version 

Bachuli shears

The grass has its own importance in the mountains, and the location of the shears that cut it is also important, imagining the rural life of grass grass is a bit unscrupulous, in which nothing in the mountains without these weeds seems to be possible.  , In a way, it is like a backbone in the rural life of the mountain, without which the rural life of the mountain is a bit incomplete.

 That's why it was going to be a different matter of the mountain's shearers, bringing them from big knees to small bridges, that too from such an inaccessible place, only after seeing the heart should come to the mouth.

 One such shepherd remained a child, hardly anyone could compete with her in cutting grass, cutting grass from bhaves (steep rock) to straight rukos (trees) was like a left-handed game for her.

 Seeing her cutting the grass, the heartbeat of the viewers used to increase, but she used to cut the grass with ease.

 Bachuli was famous for cutting grass in the whole area, no one was able to compete with it, people used to say, this mias (man) is less ghaved (species of deer) than the rest (more) and this also seemed to be true.  Because the way the horse used to climb anywhere, in the same way, the children also used to climb anywhere to cut grass.

 Hardly any stance (tree) of the area would have been saved from Bachuli in which she would not have climbed, In front of Bachuli's courage, big trees (trees) were also seen from dwarfs, Bachuli climbed with great ease and would have cut them, 50 from the ground.  It would have been appropriate to see the balance of the bachuli on fit high stances (shrines), seeing it climbed to such a height, people would have come to the garden, though it is natural to see someone climbing at such a height.

 How Bachuli must have had so much confidence in herself, it was a matter of thinking, then one day Champa, a resident of her own village, opened her secret, Champa and Bachuli were childhood companions, according to Champa, Bachuli had been a child since childhood.  She was fond of climbing trees, due to this, since childhood, she used to go to the forest to cut grass with her Ija (mother), and gradually she became so proficient in this work that no one could compete with her.  It was, mother and daughter used to cut so much grass, that they used to sell loot of loot (hay bundle store).

 When Bachuli got married, she started doing the same work in the in-laws, a lot of cows, buffalo shifts so that she could financially support the house by selling milk, ghee and grass, her thinking made her a famous shearer of the area.  .

 As early as early morning, the cow would give grass to the buffaloes, till then her mother-in-law would make tea and breakfast, and after eating the baby, she would go out to the forest, before noon, return home with a big bundle of grass.  .

 Upon reaching home, she used to eat the day's food, which her mother-in-law would have prepared, then she would have some rest, would go out to work in the fields in the evening with her husband and return before dark.

 Due to the child, the whole house was active, everything would have time, the time from eating to sleeping is all the time and the result was that there was no shortage of any kind in her house, she used to sell milk in good quantity, along with  Ghee was also sold and the grass was sold well, on the whole, it could be said that the child's hard work had opened a good employment, which was being run by the whole house, and because of this, her family escaped from the bite of migration.  was also left.

 Scripted story
 All rights reserved

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

Please give your compliments in comment box

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पहाडी चिडिया - Mountain Bird

रेबा ,गाँव में उसे सब इसी नाम से पुकारते थे, वैसे उसका नाम ठहरा रेवती। किशन दा की चैली रेबा को पहाड़ से बड़ा लगाव था,जब उसके साथ की लड़कियाँ हल्द्वानी शहर की खूबियों का बखान करती तो, रेबा बोल उठती, छी कतुक भीड़ भाड़ छ वाँ, नान नान मकान छ्न, गरम देखो ओरी बात, मैं कें तो बिल्कुल भल न लागण वाँ,मैं कें तो पहाड भल लागु, ठंडी हौ, ठंडो पाणी, न गाडियों क ध्वा, ना शोर शराब ,पत्त न की भल लागु तुमुके हल्द्वानी, मैं कें तो प्लेन्स बिल्कुल भल न लागण। रेबा पहाड़ की वो चिडिया थी, जिसकी जान पहाड़ में बसती थी, उसके लिये पहाड़ से अच्छी जगह कोई नही थी, रेबा सुबह जल्दी उठ कर ,सबके लिये चाय बनाती फिर स्कूल जाती, वहाँ से आकर घर का छोटा मोटा काम निपटाती, ओर फिर पढ़ने बैठ जाती,ये रेबा की दिनचर्या का हिस्सा था। रेबा अब इन्टर कर चुकी थी, किसन दा अब उसके लिये लड़का ढूँढने लग गये थे, ताकि समय पर उसके हाथ पीले हो सके।पर रेबा चाहती थी की उसकी शादी पहाड़ में ही कहीं हो, उसने अपनी ईजा को भी बोल दिया था की ,तू बाबू थें कै दिये मेर ब्या पहाड़ में ही करिया, भ्यार जण दिया। इधर किसन दा रेबा के लिये...

पीड ( दर्द ) Pain

बहुत दिनों से देखने में आ रहा था की कुँवरी का अनमने से दिख रहे थे ,खुद में खोये हुये ,खुद से बातें करते हुये ,जबकि उनका स्वभाव वैसा बिल्कुल नही था ,हँसमुख ओर मिलनसार थे वो ,पता नही अचानक उनके अंदर ऐसा बदलाव कैसे आ गया था, समझ नही आ रहा था के आखिर हुआ क्या।  कुंवरी का किस कदर जिंदादिल थे ये किसी से छुपा नही ठहरा ,उदास वो किसी को देख नही सकते थे ,कोई उदास या परेशान दिखा नही के कुंवरी का उसके पास पहुँचे नही ,जब तक जाते ,जब तक सामने वाला परेशानी से उबर नही जाता था ,अब ऐसे जिंदादिल इंसान को जब उदास परेशान होते देखा तो ,सबका परेशान होना लाजमी था ,पर कुँवरी का थे के ,किसी को कुछ बता नही रहे थे ,बस क्या नहा क्या नहा कह कर कारण से बचने की कोशिश कर रहे थे ,अब तो सुबह ही घर से बकरियों को लेकर जंगल की तरफ निकल पड़ते ओर साँझ ढलने पर ही लौटते ,ताकि कोई उनसे कुछ ना पूछ पाये ,पता नही क्या हो गया था उन्हें ,गाँव में भी उनका किसी से झगड़ा नही हुआ था ,ओर घर में कोई लड़ने वाला हुआ नही ,काखी के जाने के बाद अकेले ही रह गये थे ,एक बेटा था बस ,जो शहर में नौकरी करता था ,उसके बच्चे भी उसी के साथ रह...

थान

थान - मंदिर प्रवीण के पिता को अपना गाँव ढूँढने में बडी मशक्कत लगी, क्योकिं वो खुद बचपन में एक बार अपने पिता के साथ ही आ पाये थे, उसके बाद उनका भी आ पाना संभव नही हुआ। प्रवीण के बूबू ( दादा ) को किसी जमाने में कोई अंग्रेज अपने साथ साउथ अफ्रीका ले गया था, शायद वो अंग्रेज तब इन पहाड़ों में अधिकारी रहा होगा, फिर वहाँ से साउथ अफ्रीका चल दिया होगा, तब से प्रवीण का पूरा परिवार वहीं रहा। वही पर रच बस गया था प्रवीण का परिवार, प्रवीण के पिता का जन्म भी वहीं हुआ था ओर प्रवीण तीसरी पीढ़ी का सदस्य था, जो की वहीं जन्मा,दादा शायद नौकरी करते थे, ओर पिता ने पढ़ लिख कर खुद का काम शुरू किया, कुल मिलाकर अच्छा खासा संपन्न परिवार था उन लोगों का। पर कहते हैं ना की जन्मभूमि बुलाती जरूर है, खासकर पहाड़ की तो, ऐसा ही कुछ प्रवीण के परिवार के साथ भी हुआ, ओर उन्हें भी बरसों बाद पहाड़ आना पड़ा। हुआ ये की प्रवीण के परिवार में अचानक विपत्ति आ गई, उसके पिताजी की तबीयत ना जाने क्या खराब हुईं की, लाख ईलाज करवा लिया पर बीमारी समझ नही आई डाक्टरों को, सब हताश हो गये, प्रवीण के पिता की दशा निरंतर बिगड़ती चली जा रही थी।...