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अक्तूबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

लच्छ दा की गाड़ी

लच्छ दा ने बरसों तक दिल्ली में गाड़ी चलाई ठहरी , जब तक युवा थे , दिल्ली बढ़िया लगी ठहरी उनको।  पर उम्र बढ़ने के साथ ही पहाड़ उन्हें अपनी तरफ खीचने लगा था , फिर एक दिन तय कर लिया की अब पहाड़ जाना है , तो सारा जरूरी सामान समेट कर पहाड़ आ गये। कुछ दिन तो गाँव में खाली रहे , फिर कोई काम करने की सोची , पर उन्हें तो सिर्फ गाड़ी चलानी ही आती थी , तो इसी को रोजगार बनाने का निश्चय किया , गाँव से रोज जाने वाले यात्रियों की संख्या पता की।  जब लगा के इसमें दर गुजर चल जायेगी तो , तय कर लिया की एक सवारी गाड़ी निकलवा लेता हूँ , ओर गाँव से हल्द्वानी तक चला लूँगा।  गाडी के लिये बैंक से लोन लिया ओर एक गाड़ी निकलवा ली , ओर इस तरह शुरू हुआ नया काम पहाड़ में आकर।  हँसमुख व मजाकिया स्वभाव के लच्छ दा , लोगों को बहुत भाते थे , इसलिये हमेशा उनकी गाड़ी भरी रहती थी।  गाड़ी चलाते हुये सवारियों से हँसी मजाक करते रहते , इसके चलते लोगों को पता ही नही चलता की कब सफर पूरा हो गया।  लच्छ दा की एक खास बात ओर थी , जो उन्हें अन्य गाड़ी वालों से अलग करती थी , वो थी सफर करते वक़्त अगर किसी को उल्टी  आने को होता

जागीरदारनी

जब हम छोटे बच्चे हुआ करते थे, तब हमारी आमा एक कहानी सुनाया करती थी, कहती थी पूर पहाड़ में उई ऐकली स्याणी छी, जो जागीरदारनी छी,बाकि जागीरदार तो बैगे ( पुरुष ) छी तब। आमा बताती की वो बहुत बहादुर महिला ओर धर्म परायण थी, उसकी अपनी कुलदेवी में असीम आस्था थी , उसकी जागीर कई गाँवो तक फैली हुईं थी, दो नदियों के बीच का पूरा इलाका उसके अधीन था, जहाँ से वो लगान वसूलती ओर आगे राजा को भिजवा देती। आमा बताती थी की वो हमेशा गहनों से लदी रहती थी ओर  खूबसूरत होने के साथ साथ बेहद दयालु भी थी,उसके इलाके में अगर कोई कष्ट में होता तो वो खुद वहाँ जाकर उसकी सहायता करती थी,इस कारण उसकी जागीर के अन्तर्गत आने वाले इलाके के लोग खुशहाल थे, पूरे राज्य में उस जागीदारनी का काफी नाम था। हम आमा से कहते थे आमा उस जमाने में जब सारे जागीरदार पुरुष ही हुआ करते थे तो वो एकमात्र स्त्री जागीरदार कैसे बनी, तब आमा बताती यो ले जोरदारक किस्स छ, उ जमान में राजाओंक राज छी, एक बार राजक सेनापति गों बैठी सेना दगड जाण छी, बाट में नौव छी, उ नौव में जागीरदारनी पाणी भरने छी, सेनापति घोड कं तीस लागे ओर सेनापति घोड ली

बच्च दा

ओ बच्च दा कहाँ को दौड़ हो रही ठहरी रत्ती ब्यान ,बच्च दा को टोकते हुये गोपाल दा बोले, सुनते ही बच्च दा पलटे ओर बोले फाव (कूद ) खीतने ( मारने ) जानी हिटले ( चल रहा है ) गोपाल दा खितखित करते हुये बोले, वाँ तुमि जाओ, पर चाहा पी बेर जाला आ जाओ। फटा जूता, सिर पर टोपी, ढीली सी पतलून ओर ऊपर फटी सी स्वेटर पहने बच्च दा चाहा का नाम सुनते ही बड़ी ठसक से खुट में खुट ( पाँव में पाँव ) रखकर आँगन में आकर बैठ गये, ओर जोर की आवाज लगा कर बोले , ओ ठुलईज गुड जरा ठुल ठुल ली बेर आये, कम मीठ में चाहा पी जस न लागें अक्रिम ( अजीब ) स्वाद ओं। बच्च दा गाँव के हर घर को अपना घर सा ही मानते थे, इसके चलते ही वो इस तरह की बात अधिकारपूर्ण बोल जाते थे। बच्च दा जवाब देने में बड़े हाजिर  थे, लोग मजाक करते तो बच्च दा ऐसा जवाब देते की सामने वाला खिसिया कर रह जाता, वैसे बच्च दा थे सीधे व सरल इंसान । गाँव में बस उनकी टूटी फूटी कुड़ी थी, बाकि जमीन जायदाद तो उनके बिरादर खा गये थे,जब वो बहुत छोटे थे, उनके बौज्यू का देहांत हो गया था ओर 13 - 14 साल के होंगें तो ईजा भी चल बसी ,जब सम्भालने वाला कोई नही बचा , तो बिरादरों ने उ

गाँव की जिंदगी - Life in village

आगे की पढ़ाई करने बड़े दाज्यू के साथ लखनऊ चले गये थे कुँवर सिंह जी, बड़े दाज्यू डाक विभाग में काम करते थे ,इन्टर  पास करने के बाद उन्हें भी पी डब्लू डी में क्लर्क की नौकरी में लगवा दिया उनके दाज्यू ने। कुँवर सिंह जी कई सालों तक लखनऊ में ही नौकरी करी, बच्चे भी पढ़ लिख कर लखनऊ में ही नौकरी लग गये, इसके चलते कुँवर सिंह जी एक तरह से लखनऊ के ही होकर रह गये ,पर दिल के किसी कोने में पहाड़ बसा था, जो कुँवर सिंह जी को बहुत याद आता था। कुँवर सिंह जी का मन करता की उस पहाड में जाकर फिर से रहा जाये, जहाँ कभी वो खूब खेला कूदा करते थे, स्कूल जाया करते थे, जहाँ उनकी ईजा उनके रोने पर घुघूती बासूति गा कर उन्हें मनाती थी ,पर नौकरी के चलते ये संभव नही हो पा रहा था। कुछ सालों बाद कुँवर सिंह जी रिटायर हो गये, पर परिवारिक मोह के चलते शहर में ही रहे, अब उनके पास कोई काम नही था आराम करने के सिवा, सुबह शाम पार्क में चले जाते ओर दिन में सो जाते, इसके चलते वो बोर होने लगे थे,हाथ पाँवों में भी दर्द होना शुरू हो चला था, डाक्टर को दिखाया तो उसने घूमने फिरने ओर हल्का व्यायाम करने की सला

नथ - Nose Ring

नथ  सात भाई बहिनों में रज्जू सबसे छोटा था , लाड़ प्यार में पला था रज्जू इसलिए थोड़ा बिगड़ भी गया था, पढ़ने में तो बिल्कुल मन नही था उसका, घर से स्कूल को निकलता, ओर रास्ते से ही गायब हो जाता, कई बार उसके बौज्यू ने इस कारण उसको चूटा ( पीटा ) भी ठहरा, पर मार का भी उसके ऊपर कोई असर नही हुआ। रज्जू के बौज्यू ( पिता ) उसे समझाते समझाते थक गये की पढ़ लिख ले, नही तो कल पछतायेगा,पर रज्जू को तो बस अपने मन की करनी थी, सो उसने किसी की नही सुनी। रज्जू के सारे भाई बहिन पढ़ लिख गये ओर रज्जू उनके सामने एक तरह से अनपढ़ सा रह गया, बड़ी बहिनों की अच्छे घरों में शादी हो गई ओर भाई अच्छी नौकरियों में लग गये,गाँव में रह गया तो सिर्फ रज्जू। रज्जू पढ़ा लिखा तो था नही इसलिए उसे नौकरी में कौन रखता, इसलिए वो गाँव में रहकर ही खेती बाडी करने लगा, समय गुजरने के साथ भाईयों का विवाह भी हो गया, अब गाँव में रह गये तो रज्जू ओर रज्जू के ईजा बौज्यू ( माँ बाप ) ओर रज्जू से दो साल बड़ी एक बहिन , रज्जू खेती बाडी करता ओर अपने माँ बाप की सेवा करता। रज्जू के सारे भाई बाहर बस चुके थे, उनका धीरे धीरे गाँव आना भी कम हो चला था, कोई

मात दी ( साध्वी ) का चमत्कार - Miracle of lady saint

हमारे गाँव के ग्राम पंचायत क्षेत्र में देवी का एक छोटा सा मंदिर था, गाँव के लोग वहाँ त्यौहार या किसी के घर भैंस या गाय ब्याह जाती थी तो, उसका दूध चढ़ाने उस मंदिर जाते थे, या जब मात दी ( साध्वी ) वहाँ रुकती तब जाते। मात दी ( महिला साध्वी ) कभी कभी हमारे घर आया करती थी, जिसे सब मात दी ( साध्वी दीदी ) कह कर बुलाया करते थे , मात ( साध्वी ) क्यों बनी कब बनी , किसी को मालूम नही था। मात दी ( साध्वी ) का पूरा गाँव सम्मान करता था, जब भी आती हर घर उन्हें भिक्षा देता ,ओर जब भी उन्हें गाँव रुकना होता तो, गाँव के देवी मंदिर में उनका डेरा डलता, वो वहीं रुकती ,वहीं खुद के हाथ से भोजन पकाती ,ओर वहीं गाँव के लोगों के साथ भजन कीर्तन करती। मात दी ( साध्वी ) के चेहरे पर अनुपम तेज था, चेहरे पर हरदम मुस्कान तैरती रहती थी,मानो जैसे वो सांसारिक दुखों से बहुत दूर हो, कई बार मन में ये सवाल उठता था की ,क्या उनके जीवन में कोई दुख नही था, अगर नही था तो वो साध्वी ही क्यों बनी, क्यों नही उन्होनें कोई ओर राह चुनी, जब मात दी ( साध्वी ) से उनके भूतकाल के बारे में जानने की कोशिश होती वो ,सारे सवाल

कथा पुराने समय के पहाड की

आज का पहाड़ काफी बदल चुका है, एक जमाना वो भी था जब पहाड में कई चीजों का अभाव था, आज बिजली की रोशनी में रात को चमकते गाँव कितने सुँदर दिखाई देते हैं, वहीं एक जमाने में बिजली तो छोड़ो,  माचिस भी उपलब्ध होना बडी बात होती थी, अगेले से अग्नि प्रज्वलित की जाती थी, गाँव के अधिकतर लोग डाड़ू में,किसी हतर (पुराना सूती के कपडे ) में आस पड़ौस से आग माँग कर लाते ओर उसे फूँक-फूँक कर अपने घर में अग्नि प्रज्वलित करते थे, अंदर उजाला करने के लिये एक लैम्फू होता था या कड़वे तेल से जलया गया  दिया , रात में इधर उधर जाते समय हमारे खोर खूब फूटे हुये हैं, आदत जो नही ठहरी, छोटे दरवाजों की, पर मजा खूब आता था स्कूल की छुट्टियों के दौरान गाँव रहने में। अधिकतर गाँवो में सड़क ही नही थी ,कईयों ने तो गाडियाँ ही नही देखी ठहरी, केमू की बसें भी ट्रकनुमा हुआ करती थी, वो भी हल्द्वानी से अल्मोड़ा ओर अल्मोड़ा से बागेश्वर, पिथौरागढ जैसे कुछ बड़े बड़े शहरों तक ही चलती थी, हम ऐसी ही बसों में बैठ कर कई बार गये पहाड़ को, ओर सड़क से 10 किलोमीटर पैदल यात्रा करके गाँव तक पहुँचते थे, अब तो सड़कों का जाल सा बिछ गया है।