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कथा पुराने समय के पहाड की

आज का पहाड़ काफी बदल चुका है, एक जमाना वो भी था जब पहाड में कई चीजों का अभाव था, आज बिजली की रोशनी में रात को चमकते गाँव कितने सुँदर दिखाई देते हैं, वहीं एक जमाने में बिजली तो छोड़ो,  माचिस भी उपलब्ध होना बडी बात होती थी, अगेले से अग्नि प्रज्वलित की जाती थी, गाँव के अधिकतर लोग डाड़ू में,किसी हतर (पुराना सूती के कपडे ) में आस पड़ौस से आग माँग कर लाते ओर उसे फूँक-फूँक कर अपने घर में अग्नि प्रज्वलित करते थे, अंदर उजाला करने के लिये एक लैम्फू होता था या कड़वे तेल से जलया गया  दिया , रात में इधर उधर जाते समय हमारे खोर खूब फूटे हुये हैं, आदत जो नही ठहरी, छोटे दरवाजों की, पर मजा खूब आता था स्कूल की छुट्टियों के दौरान गाँव रहने में।
अधिकतर गाँवो में सड़क ही नही थी ,कईयों ने तो गाडियाँ ही नही देखी ठहरी, केमू की बसें भी ट्रकनुमा हुआ करती थी, वो भी हल्द्वानी से अल्मोड़ा ओर अल्मोड़ा से बागेश्वर, पिथौरागढ जैसे कुछ बड़े बड़े शहरों तक ही चलती थी, हम ऐसी ही बसों में बैठ कर कई बार गये पहाड़ को, ओर सड़क से 10 किलोमीटर पैदल यात्रा करके गाँव तक पहुँचते थे, अब तो सड़कों का जाल सा बिछ गया है।
लोग वर्ष में एक बार माव (रामनगर/हल्द्वानी) पैदल जाते थे,इसी पर ये गीत भी बना था घुघूती बासूती, आम काँ छ पाँण में जा रे, माव जाँ छे या पर्वत 
इसी माव से लोग इकट्ठा कपड़े के थान, गुड़, नमक, मसाले आदि अपने सिर और कन्धों पर ढोकर अपने गाँवो तक लाते थे, अन्न खुद के खेतो से प्राप्त हो जाता था।

पहाड़ में पोस्ट ऑफिस ही एक मात्र ऐसा सरकारी संस्थान था जो पहाड़ को अन्य जगहों से जोड़े रखता था, पत्र , तार ओर  मनीऑर्डर यही आते थे।

रात में उजाले के लिए मिट्टी के तेल ( केरोसीन ) से जलने वाला लैम्फू होता था, फिर मिट्टी के तेल ( केरोसीन ) से जलने वाले लालटेन आया, जिनमें मोटी सूती कपड़े की बत्ती जलती थी।

ग्यों रोट ( गेहूँ की रोटी ) बड़ी वस्तु थी मानी जाती थी , क्योकिं उस वक़्त मोटे अनाज की रोटी खाने का प्रचलन था गेहूँ की रोटी केवल  घर के वरिष्ठ सदस्यों यानी बड़े बूढ़ों या पोंणो ( मेहमानों ) के लिए ही बनती थी। धान का भात ( चावल ) भी अधिकतर पोंणो ( मेहमानों ) के लिए बनता था , तब झंगौरा, मादिर जिसे हिंदी में शामक ओर अँग्रेजी में बर्नयार्ड मिलेट कहते हैं का भात ज्यादा खाते थे ,दिन के खाने में डुबके या झोई या भट्ट की चूड़कानी के साथ इसी मादिर या झुंगरे का भात बनता और कभी कभी दिन के भोजन में कढ़ाई भर के छछिया बनता था, रात में घर क्यारियों में लगाई सब्ज़ी के साथ मडुवा ,रागी यानी फिंगर मिलेट की रोटी बनती थी,डुबके, कापा, भुज ( पेठे ) की बड़ी, भट्ट की चुड़काणी, पहाड़ी मूली का थेचुवा, उगल, बथुवा, पालक, चौलाई, लाई ( राई ), सरसों के पत्तों की सब्जी,  तोरी ( तोरई ) लौकी, इत्यादि की सब्जि़याँ सीजन के अनुसार बनती रहती थी, हरी सब्ज़ी का कापा भी बनता था खासकर पालक का, भड्डू में बनी दाल,ओर तौली में बना भात  बडा स्वादिष्ट होता था, भाँग व भंगीरे ओर कभी कभी तिल की, तो कभी कच्चे आम की चटनी नमक, मिर्च, धनियां, लहसुन मिलाकर सिल पर पीसी जाती थी उसके साथ खूब रोटी खा लेते थे। 
पहाड में गेहूँ, धान, मडुआ( फिंगर मिलेट ) मादिर झुंगरा (बर्नयार्ड मिलेट ) दालों में मास ( उड़द ), गहत, भट्ट ( ब्लैक बीन्स ) राजमा, उगाया जाता था। गेहूँ, मडुवा ( फिंगर मिलेट ) इत्यादि को पिसाने के लिये घराट ( पनचक्की ) में ले जाया जाता था, हम जब भी गाँव जाते घर से थैला उठाकर कई बार घट ( पनचक्की ) गये हैं , जाते समय आमा ( दादी ) ये हिदायत देना नही भूलती की भली के जाये ( अच्छी तरह से जाना ) ओर  झसकिये जण ( डरना मत )।
उन दिनों हम ल्वार ( लोहार ) को लोहे के सामान जैसे दराती, बसुला, चाकू ओर खेती में उपयोग होने वाले उपकरणों को घर लाते देखते थे, रुणियॉं बॉंस के डाले, छाबड़ियॉं, टोकरियाँ, पिटार आदि बनाकर लाता था। दही फानने वाला डोंकव, दही जमाने वाली ठेकी आदि बनाने के चुन्यारा आता था, ये लोग पैसा नहीं लेते थे, बल्कि खौव (अनाज ) ले जाते थे।
घर में हो रहे उत्सवों के अवसरों पर या वर्ष में एक बार दूरस्थ गॉंवों से हुड्की भॉंड और डँवरिए भी आते थे जो हर घर में जाकर गीत नृत्य कर उस घर का महिमामण्डन करते और इन्हे अन्न इत्यादि देकर ,इनकी सम्मान पूर्वक विदाई होती थी, आज ये परंपरा लगभग लुप्त सी हो चुकी है।

रात्रि भोजन के बाद स्कूली बच्चें पाटी (तख़्ती) पर तवे का मौस (कालिख) लगाकर रीठे की गुठली से घिस कर तख्ती को चमकाते और कमेट को एक छोटे में भीगो देते थे में , बेंत या बाँस की कलम से पाटी पर लिखते, आज ये सब लुप्त हो चुका।

तब के खेल गुल्लीडंडा, कबड्डी, अड्डू, प्रसिद्ध थे,गाँव जाते तो खूब खेलते थे तब।

फसल कटने के बाद मढ़ाई का काम घर के खाव ( आँगन ) में होता था।

जंगल जाकर किलमौड़ा, हिसालू, बेड़ू, तोड़ कर खूब खाते थे, बण तैड़ ( जंगली कंद।) खोदने के लिये घन्टो तक खोदते रहते, ताकि रात को उसकी स्वादिष्ट सब्जी खा सके।

शाम के समय घर के बड़ों की सभा में बैठ घन्टो तक उनकी  गपशप का आनंद लेते।

जब गाँव में किसी के काम काज में पारम्परिक वाद्य ढोल, किनडी बीनबाजा बजता तो लोगों को नाचता देख, खुद भी नाच लेते, आजकल तो शहरी बैंड आ गये। 
तब की बारातें ढोल, नगाड़े-निशाण और छोलिया नर्तकों के  साथ तूरी ओर रणसिंग बजाते हुये प्रस्थान करती थी,आज सब बदल सा गया।

पुराने समय में शादी-ब्याह या अन्य किसी उत्सव पर प्रकाश के लिए मिट्टी तेल से जलने वाले गैस प्रयोग में लाए जाते थे, जिनमें मेंटल लगा कर, उन्हें जलाया जाता था।

फूलदेई के त्यौहार के दिन तो बच्चे जल्दी नहा धोकर ,फूलों से भरी टोकरियाँ लेकर गाँव के हर घर के दरवाजे पर फूल बिखेरते थे और उन्हें हर घर से उपहार में कुछ न कुछ मिलता था। 
रंगों के त्यौहार होली में तो माहौल ही कुछ ओर हो जाता था, गाँव से बाहर गये लोग भी तब गाँव आ जाते थे ,बैठी होली की रातें संगीतमय होती थीं, कई दिनों तक ये कार्यक्रम चला करते थे। खड़ी होली में था। अपराह्न में सब  एकत्र होकर बाजे-गाजे के साथ घर-घर जाते थे, ओर आखरी धुलंडी के दिन रंगों से खूब होली खेली जाती थी, अब इसमें भी पहले जैसी रौनक नही रही।
अब लोग अपनी प्राचीन विरासत को भूलाते जा रहे हैं ओर शहरी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं,ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन हमारे पहाड़ की संस्कृति ओर रीति रिवाज एक दिन खत्म हो जायेंगे,इसलिए आज हम चाहे जहाँ भी रहते हों, हमारी प्राचीन परंपरा को संरक्षितकरने की कोशिश करनी चाहिये, विकास के साथ कदम मिलाते हुये, अपनी परंपरा को भी विकसित करना चाहिये।

स्वरचित लेख 

सर्वाधिकार सुरक्षित

English Version

Tale of an old mountain
 Today's mountain has changed a lot, there was a time when there was a lack of many things in the mountain, today how beautiful the villages are visible in the night in the light of electricity, while at one time leave electricity, matches are also available  There used to be talk, the fire was lit from the next, most of the people of the village brought fire from the neighborhood in a big iron spoon, in some old cotton cloth and used to ignite the fire in their house by blowing it, inside  There used to be a lamp to light up or a lamp lit with bitter oil, while going here and there in the night, our shells are bursting, the habit that did not stop, of small doors, but it was a lot of fun to stay in the village during school holidays.

 There was no road in most of the villages, many did not even see the vehicles, the buses of Kemu used to be truck-like, that too used to run from Haldwani to Almora and from Almora to Bageshwar, Pithoragarh only to some big cities like this.  Went to the mountain many times sitting in buses, and used to reach the village after traveling 10 kms by road, now a network of roads has been laid.

 People used to go to Ramnagar/Haldwani once in a year on foot, on this song this song was also composed Ghughuti Basuti, Aam Kanch Paan Mein Ja Re, Mav Jaan Chhe Ya Parvat.
 People used to carry cloth bags, jaggery, salt, spices etc. on their heads and shoulders and brought them to their villages, food was obtained from their own fields.

 The post office in the mountain was the only government institution that connected the mountain to other places, where letters, telegrams and money orders came from.

 At night, there was kerosene burning lamp, then kerosene burning lanterns, in which thick cotton cloth lights were lit.

 Wheat bread was considered to be a big commodity, as it was the practice of eating coarse grain bread at that time, wheat bread was made only for the senior members of the house i.e. elders or guests.  Paddy rice was also mostly made for the guests, then Jhangaura, madir which is called shamak in Hindi and barnyard millet in English used to eat more rice, dip in the day's meal or chudkani of jhoi or rice.  Along with this, rice was made from this madir or jungrae and sometimes a pan filled with a pan was made in the day's food, at night with the vegetables planted in the house beds, bread of finger millet was made, dupke, kapa, petha Ki Badi, Bhatt's Chudkani, Thechuva of hill radish, Ugal, Bathuva, Spinach, Chawlai, Lai (Rye), Mustard leaf vegetable, loofs Gourd, etc. Vegetables used to be prepared according to the season, Green vegetable  Kapa was also made, especially of spinach, lentils made in bhaddu, and rice made in towels was very tasty, hemp and bhangira and sometimes sesame, and sometimes raw mango chutney mixed with salt, chilli, coriander, garlic was grinded on the cob.  He used to eat a lot of bread with him.

 Wheat, Paddy, Finger Millet, Bernyard Millet Pulses, Urad, Gahat, Black Beans, Rajma, were grown in the hills.  Wheat, Finger Millet etc. used to be taken to the watermill for grinding, whenever we went to the village, picking up the bag from the house, we went to the watermill many times, while going grandmother should give this instruction. that go well and don't be afraid.

 In those days, we used to see the blacksmith bringing home iron articles such as scourers, basulas, knives and tools used in agriculture, the runes used to make bamboo poles, chhabris, baskets, pots etc.  big woodens pot , who used to make curd, used to make chunyara for making curd, etc. These people did not take money, but used to take grains.

 On the occasions of festivals happening in the house or once a year, local folk singers  and also used to come from distant villages, who used to go to every house to glorify that house by singing songs and giving them food etc., They were honored with farewell today.  This tradition has almost disappeared.

 After dinner, the school children used to put soot of the pan on the wooden plank and rubbed it with the kernels of reetha to shine the wooden plate and soak the soap stone powder in a small piece, writing on the patti with a cane or bamboo pen, today it is  Everything has disappeared.

 The games of then Gullidanda, Kabaddi, Addu were famous, they used to play a lot when they went to the village.

 After harvesting, the work of grazing was done in the courtyard of the house.

 Going to the forest, Kilmauda, ​​Hisalu, Bedu, used to eat a lot by plucking, digging for hours to dig wild tuber so that he could eat his delicious vegetable at night.

 In the evening, he would sit in the meeting of the elders of the house and enjoy their gossip for hours.

 When someone in the village used to play the traditional instrumental drum, Kindi Bagpipper , they would see people dancing and dance themselves, nowadays urban bands have come.

 The processions then used to go with drums, drums and cholia dancers playing turi and ransing, today everything has changed.

 In the old times, kerosene-burning gas was used for lighting on weddings or any other celebration, in which they were lit by putting a mantle.

 On the day of the festival of Phuldei, the children, after taking a bath early, carrying baskets full of flowers, used to spread flowers at the door of every house in the village and they used to get something as a gift from every house.

 In Holi, the festival of colors, the atmosphere used to be different, people who went out of the village also used to come to the village, the nights of Holi were musical, used to run these programs for many days.  It was in Khari Holi.  In the afternoon, everyone used to go from house to house with music, and on the last day of Dhulandi, a lot of Holi was played with colors, now it is not as bright as before.

 Now people are forgetting their ancient heritage and adopting urban culture, if this continues, then one day our mountain culture and customs will end one day, so wherever we live today, our ancient  One should try to preserve the tradition, keeping pace with the development, should also develop one's own tradition.

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