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जुलाई, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भुवन

कहते हैं ना की अगर कुछ कर गुजरने की तमन्ना हो तो, व्यक्ति विषम परिस्तिथियों के बावजूद सफलता प्राप्त कर सकता है, कुछ ऐसा ही कर दिखाया भुवन ने। भुवन ने विषम परिस्तिथियों से मुकाबला करते हुये ना केवल खुद को स्थापित किया, अपितु उन लोगों के लिये उदहारण बन गया, जो पहाड़ को किसी काम का ना मानकर पलायन कर रहे हैं। भुवन ने अपना पूरा बचपन गरीबी में जिया, गरीबी भी ऐसी के ,कई बार तो भूखे ही सोना पड़ता था, बौज्यू ( पिता ) की शराब की लत के कारण, उसके परिवार को जिसमें उसकी ईजा ( माँ ) ओर एक छोटा भाई था, को फाँकाकशी का जीवन व्यतीत करना पड़ रहा था। भुवन ने बचपन से ही अपनी ईजा को, आर्थिक हालातों से लड़ते देखा था, बौज्यू ( पिता ) को घर से कोई सरोकार नही था, वो हमेशा शराब के नशे में धुत्त रहते, ओर अगर भुवन की ईजा ( माँ ) कुछ कहती तो, मार पीट पर उतारू हो जाते। इन हालातों को देखते हुये भुवन वक़्त से पहले समझदार हो गया था, वो जंगल जाकर लकडियाँ लाता, ओर गाँव में जिसे भी लकड़ी की जरूरत होती उन्हें बेच देता, भुवन साथ ही अपनी ईजा ( माँ ) की घास काटने में भी मदद करता, इस तरह से थोड़ा बहुत पैसा या जरूरत का साम

शिब्बू

शिब्बू बहुत सालों बाद अपने गाँव आया था, उस गाँव में जहाँ उसने अपना बचपन बिताया था, यही के प्राइमरी स्कूल में उसने पहली बार जाना था की ,पढ़ाई क्या होती है, फिर आगे की पढ़ाई के लिये उसने , इस गाँव से 5 किलोमीटर दूर ,जी जी आई सी इन्टर कालेज तक जाने के लिये  रोजना सफर किया,उन दिनों को सोचते हुये शिब्बू उन दिनों की यादों में खो सा गया। कैसे शिब्बू के बौज्यू ने उसकी पढ़ाई के लिये दूसरों के खेतों में हल तक बाया, ताकि वो अच्छी तरह पढ़ सके। शिब्बू ने भी अपने बौज्यू को कभी निराश नही किया, वो हमेशा अच्छे नम्बरों से पास होता रहा,पर कहते हैं ना की जिंदगी इतनी आसान नही होती, उसमें लगातार रूकावटें आती रहती हैं, ओर यही हुआ शिब्बू के साथ भी। एक दिन शिब्बू के बौज्यू के हल बातें समय हल का फल पैर में घुस गया, उन्होनें इस पर ज्यादा ध्यान नही दिया, ओर इसका परिणाम ये हुआ की घाव में इंफेक्शन फैल गया, ओर उनका पैर काटना पड़ा, तब शिब्बू ने इन्टर पास करा ही था। शिब्बू के बौज्यू का पैर कटने से, उनके द्वारा किया जाने वाला काम बंद हो गया, इसके चलते आर्थिक संकट पैदा हो गया। शिब्बू के सा

बहादुरी का पर्दाफाश - Bravery exposed

हम जैसे प्रवासियों को पहाड़ों में दो चीजों का डर लगने वाला हुआ ,एक तो छोव ( भूत ) का ओर दूसरा ठहरा बाघ का। भले ही हम लोग कितनी ही शेखी क्यों ना मार लें,पर अंदर ही अंदर डर तो लगने वाला ही हुआ। दिन भर चौड़ी छाती करके घूमने वाले हम जैसे लोग रात होते ही भीगी बिराऊ ( भीगी बिल्ली ) जैसे बन जाते। रात आठ बजते बजते खा पी कर टुप्प ( चुपचाप ) से बिस्तर में घुस जाते ओर फिर जब अच्छा उजाला हो जाता, तब ही बाहर को निकलते। हम से अच्छा तो वहाँ का छोटा बच्चा होता, जो लघु शंका आने पर धड़ाक से दरवाजा खोल कर बाहर निकल जाता ,हम जैसे तो सुबह होने का इंतजार करते रहते। सुबह होते ही फिर से निडर बनने का दिखावा करने लगते, मगर कभी कभी ये दिखावा भारी पड़ जाने वाला हुआ, ओर एक बार ऐसा ही हुआ। एक बार की बात है की,हम गये थे गाँव ,ओर साथ हमारे कुछ शहरी मित्र भी थे,अब जब शहरी मित्र साथ हो तो,पहाड़ी होने के नाते बहादुर दिखना तो ठहरा ही, तो उस ग्रूप में सबसे बहादुर में गिनती हुई हमारी, सारे मित्र चुपचाप हमारे कहे अनुसार रह रहे थे,बहादुर बनने के चक्कर में हमनें उन्हें ओर डरा रखा था। हमनें उनको भूत से लेकर बाघ जैसे खतर

डरपोक रमिया

रमिया छोटेपन से ही बहुत डरता था , साँश ( शाम ) हुई नही के , वो घर के अंदर घुस जाता था , घरवाले उसकी इस हरकत से परेशान थे।  रमिया के बोज्यू तो , उसकी ईजा से इस बात पर लड़ जाते थे , की तूने छोव हौवौ ( भूत प्रेत ) की बात सुना सुना कर इसे डरपोक बना दिया बल। इस पर रमिया की ईजा बोलती , गाँव के सारे बच्चों ने भी तो सुन रखी है ये बातें , पर वो तो नही डरते बल , जरूर तुम भी ऐसे ही होंगें बल बचपन में। ये डायलॉग सुनकर रमिया के ईजा बोज्यू ओर लड़ बैठते , पर रमिया को इस लड़ाई से कोई फर्क नही पड़ता था  , वो तो घुघूत जैसा चुपचाप एक कोने में बैठा रहता था , हाँ आस पड़ौस के लोग जरूर उनकी लड़ाई से,  अपना मनोरंजन कर लेते थे।   दिन भर उछल कूद मचाने वाला रमिया , शाम होते ही इतना सीधा बन जाता था की , सीधा घर का रास्ता पकड़ लेता था , उसकी  साँस में साँस तब आती थी , जब वो देहरी के अंदर घुस जाता था।   उसके बोज्यू ( पिता ) बडे परेशान रहते ये सब देख कर , पर क्या करें ये समझ नही आता था उन्हें , वो इस बात से भी परेशान रहते थे की , बड़ा होकर भी ऐसे ही डरता रहा तो , क्या होगा बल इसका। कई बार तो रीस ( ग

रम दा

 रम दा अक्सर दिन में दुकानों के बाहर बैठा रहता था। वहीं गप्पे हांकने ओर सुनने के अलावा बिशन दा दुकानदार के घर से , दाल , भात टपकी मिल जाता था।  ओर दिन भर में चार पांच गिलास गुड की चाय भी। आगे पीछे कोई नही था , कौन था कहाँ से आया था ये भी किसी को नही मालूम।  पर सबका रम दा था वो। ये नाम भी उसे किसने दिया था , ये भी किसी को नही मालूम था । पर रम दा के बिना दुकानों की रौनक भी नही थी , ये लोगों को तब महसूस होती थी। जब रम दा गाँव के किसी न्यौते में चला जाता था। रम दा किसी का कुछ ना लगने के बावजूद  रम दा को न्योता देना कोई नही भूलता था। ये रम दा का सम्मान था। रम दा भी वहाँ सुबह ही पहुँच जाता , ओर काम के बारे में सटीक सलाह देता। लोग उसे मानते भी थे , रम दा एक तरह का सलाहकार भी था। देवी मंदिर उसका रात का ठिकाना हुआ करता था , सुबह होते ही रम दा नहा धो कर , जोर जोर की आवाज में पता नही क्या क्या मंत्र पढ़ता था ,ओर लोग उसकी आवाज सुन कर अपनी दिनचर्या प्रारम्भ कर देते थे। रम दा अक्सर दिन में दुकानों के बाहर बैठा रहता था। वहीं गप्पे हांकने ओर सुनने के अलावा बिशन दा दुकानदार के घर से , दाल ,

कम्मू

कम्मू शेर दा को रोड के नीचे जो जंगल था वहीं कुरी की झाड़ी में मिली थी, होगी तब कुछ दिनों की, कोई  छोड़ गया मरने के लिये ,शायद उसे लड़की की जरूरत नही थी, या ओर कोई मामला रहा होगा,वैसे पहाड़ों में ऐसा होता नही अमूमन। कम्मू को जीना होगा, इसलिए उस दिन शेर दा को ईश्वर ने उसका रक्षक बना कर भेज दिया। उस दिन शेर दा का पेट थोड़ा खराब सा था, इसलिए तहसील से आते वक़्त वो गाँव जाने के रास्ते से थोडा़ पहले उतर गये, ताकि उधर से शॉर्ट कट जल्दी घर पहुँच जाये, ओर ज्यादा समस्या हो तो, झाड़ियों में निवृत भी हो ले। उस दिन शेर दा जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहते थे, इसलिए वो तेज गति से नीचे की ओर उतर रहे थे,तभी उन्हें अजीब सी आवाज सुनाई दी, उन्हें लगा जैसे कोई अजीब जानवर रो रहा हो, या कोई बच्चा रो रहा हो, वो सावधानी से उस ओर बढ़े, वहाँ पहुँच कर देखा तो,देखते हैं की एक कपड़े में लिपटा हुआ बच्चा रो रहा है,उन्होनें उसे तुरंत उठाया ओर उलट पलट कर देखा की कोई चोट तो नही आई है बच्चे को, जब वो आश्वस्त हो गये की बच्ची बिल्कुल ठीक है तो वो उसे गाँव की तरफ लेकर चल दिये, ओर गाँव पहुँच कर उन्होनें लोगों को इस बच्ची के

मुड़कट्टी - Ghost without head

देवभूमि उत्तराखंड में जहाँ देवताओं का निवास माना जाता है, वहीं भूत प्रेतों के किस्से भी कम प्रचलित नही हैं ,स्थानीय लोगों में भी इनका भी काफी प्रभाव देखने को मिलता है,हालाँकि मेरे साथ ऐसा कोई वाक्या पेश नही आया, जिससे ये साबित हो की ये वास्तविक रूप में मौजूद हो, हाँ पर कुछ ऐसे हादसे पेश हुये, जिससे एक आद बार को लगा की ,ये वास्तविक रूप से मौजूद हैं, पर ये केवल छलावा साबित हुये, मन का वहम ओर लोगों द्वारा प्रचलित बातों के कारण ऐसा हुआ। जब भी छुट्टियों में गाँव जाना होता तो, वहाँ जाकर इन भूत प्रेतों के किस्सों का डर अपने आप मन में बैठ सा जाता, दिन ढलने के साथ तो ये ओर बढ़ जाता, रात में तो अकेले सोने में भी डर लगता, इस कारण हमउम्र साथी मजाक भी उड़ाते ,पर डर के कारण उसे सहन भी करना पड़ता की, कहीं ये लोग साथ ना छोड़ दें। सच कहूँ तो बडी विचित्र स्तिथि होती थी उस दौरान, अब किसी शहरी बालक के मन में इन भूत प्रेतों के किस्सों का डर बैठ जाए तो, समझा जा सकता है उसके मन की स्तिथि, ऊपर से निडर होने का दिखावा ओर अंदर से व्याप्त डर, अजीब सी हालत कर देती थी,पर पहाड़ के प्रति लगाव ऐसा था की मौका मि

लछमी ठुल बौज्यू

गाँव में रहने वाले लछमी ठुल बौज्यू उर्फ लक्ष्मण सिंह ने अपनी गुजर बसर के लिये खेती की जगह, फलों के पेड पौधे लगायें, ओर उनमें उगने वाले फलों को बेच कर घर का खर्चा चलाते थे। लछमी ठुल बौज्यू ने इस काम के लिये अपने गाँव के घर को छोड़ कर, गाड ( नदी ) किनारे वाली जमीन को बागान बना दिया  ओर वहीं काफी सारे फलों के पेड लगायें, ओर वो वहीं छोटा सा मकान बनाकर रहने लग गये थे, गाँव में तो वो सिर्फ फल बेचने के लिये आते, रोजाना ताजे फलों को रिंगाल से बने एक डाल्ल ( टोकरी ) में भर कर, गाँव गाँव जाते ओर शाम पड़े फिर गाड किनारे वाली कुड़ी पर लौट जाते। लछमी ठुल बौज्यू कभी आम, कभी अमरूद तो कभी पपीते,तो कभी अलग अलग प्रकार के फल  डाल्ल ( टोकरी ) में लाते,उनके प्राकृतिक रूप से पके फल बेहद स्वादिष्ट होते थे। उनका दिन का भोजन हमारे घर पर हुआ करता, हमारे घर आने पर वो हमारी आमा ( दादी ) को   ठुलईज बोलते हुये कहते  काँ छ ठुलईज मैं आ गई, ( कहाँ है बड़ी माँ, मैं आ गया ) क्याई बच्चो तो खव्वा दे भूख लाग रे (कुछ बचा है तो खिला दे भूख लग रही है)। ये बोल कर लछमी ठुल बौज्यू अपने डाल्ल ( टोक