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पुराने समय में गाँव का सफर

दसियों किलोमीटर तक सड़क का तब नामोनिशान नही था, जो लोग बाहर रहते थे, वो बस में बैठने के लिये ,पहले 7 किलोमीटर ढलान में उतरते हुये गाड ( नदी ) तक पहुँचते, फिर 5 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ कर एक पहाड़ को पार करते हुये सड़क तक पहुँचते, मैं भी बचपन में कई बार उस रास्ते गया हूँ।

गाँव जाना बेहद पसंद ठहरा बचपन से, हल्द्वानी से केमू ( कुमाऊँ मोटर ऑपरेटर यूनियन ) की बस , जो की तब ट्रकनुमा हुआ करती थी, ओर सीटें लकड़ी के पटरे से बनी हुई होती, उसमें सफर करते हुये अल्मोड़ा तक पहुँचते, वहाँ से वाया दन्या होते हुये पिथौरागढ़ जाने वाली बस में बैठ कर आगे का सफर शुरू होता, जो की काँडानौला जाकर खत्म होता। 
जिस साल अल्मोड़ा से आगे की बस नही मिल पाती, वो दिन खुशी का होता, क्योकिं उस दिन अल्मोड़ा होटल या गेस्ट हाउस में रुकने को मिलता, उन दिनों होटल में रुकना बहुत बड़ी बात हुआ करती हमारे लिये तो, साथ ही सफर के दौरान हुई थकान भी थोडा़ कम हो जाती।

पर दूसरे दिन तो जाना ही पड़ता अल्मोड़ा से ,पहाड़ी घुमावदार रास्ते से काँडानौला पहुँचते ही ऐसे लगाता, जैसे गढ जीत लिया हो, ऐसा महसूस होता जैसे किसी आक्सीजन की कमी वाले मरीज को आक्सीजन मिल गई हो।

बस से उतरते ही लोग सामान वहाँ बनी इकलौती दुकान के आगे रख, सड़क किनारे जमीन पर बैठ कर ही,सुस्ताते हुये थकान उतारने में लग जाते थे, एक आध घन्टे बाद जब उन्हें लगता की,अब आगे की यात्रा कर सकते हैं, तब शुरू होती तैयारी, दुकान में नाश्ता पानी किया जाता, ताकि आगे का कम से कम 12 किलोमीटर का सफर आसानी से हो सके, साथ में छोटा मोटा सामान लिया जाता, भारी भरकम सामान दुकान में ही छोड़ दिया जाता, जो अगले दिन गाँव वाले आकर ले जाते।
12 किलोमीटर का पैदल सफर भी काफी दुरूह था, रोड से ऊपर थोड़ी चढ़ाई, फिर ढलान से होते हुये कम से कम 5 नीचे नदी तक आना , नदी में पहुँचते ही मैं तो कपड़ों सहित पानी में डुबकी लगा मारता था, इससे काफी कुछ थकान कम सी हो जाती थी ओर फिर 7 किलोमीटर खड़ी चढ़ाई चढ़ कर गाँव तक पहुँचने तक फिर थकान हो उठती, कदम आगे को बढ़ने के लिये मना सा कर देते, आखिरकार रुकते रूकाते जैसे तैसे गाँव तक पहुँचते।
गाँव पहँचते पहुँचते इस कदर बेदम हो जाते की, एक दिन तो ये होश नही रहता की गाँव भी पहुँच गये।

एक आद दिन में जब थकान उतरती तो, तब जाकर गाँव के माहौल का आनंद आने लगता ,उन लोगों की हालत तो ओर भी बुरी होती, जिनको सफर में उल्टी होती, क्योकिं वो उल्टी के डर से कुछ खाते पीते नही ओर इस कारण उन्हें कमजोरी हो जाती ओर ज्यादा दिक्कत होती।

मेरा जैसा तो इस उल्टी से बचा था, इसलिए हालत ज्यादा खराब नही होती थी, पर 12 किलोमीटर का पैदल सफर , पहाड़ीनुमा पगडंडी में चढ़ने व उतरने  से काफी थकान से भर देती थी।

गाँव में कुछ दिन बीताने के बाद जब वापस लौटने का समीप आता जाता, दिल बैठता जाता की, फिर वही थकान भरा सफर तय करना पड़ेगा, उसमें भी मुसीबत ये की, काँडानौला पहुँचते ही, बस का आगे का सफर ओर थका देगी ,पर लौटना तो पड़ता ही, कई लोग तो इसलिये सफर करने से बचते थे, ओर पहाड़ की आबोहवा से वंचित रह जाते।

मैं इस मामले में भाग्यशाली रहा की, मैं गाँव का कठिन सफर होने के बावजूद , हर साल पहाड़ जा पाया , ओर अपने पहाड़ से जुड़ा रह पाया।
आज तो गाँव गाँव तक सड़कें पहुँच गई हैं, मेरे गाँव में भी बरसों पहले सड़क पहुँच चुकी, हाल ही में तो एक सड़क मकान से सट कर आगे के गाँवो की तरफ निकल गई, पर लोगों में अब पहले जैसा जोश नही है, अब लोग गाँव आने से बचते हैं,बहुत मजबूरी में ही गाँव आते हैं, जो की बिल्कुल ठीक नही, आदमी को हमेशा अपनी जड़ों से जुड़ाव रखना चाहिये,मेरा गाँव मेरा तीर्थ मानकर अपने गाँव आना चाहिये, तभी वो अपनी जड़ों से जुड़ा रह पायेगा।

स्वरचित संस्मरण 

सर्वाधिकार सुरक्षित

English Version

Village trip in olden times
 For tens of kilometers, the road was not identified then, the people who lived outside used to sit in the bus, first reached the gad (river) descending the 7 km slope, then climbed a steep climb of 5 km and crossed a mountain.  While reaching the road, I too have visited that road many times in my childhood.

 It was very much like to go to the village. Since childhood, the bus from Haldwani to Kemu (Kumaon Motor Operator Union), which was then trucked, and the seats would have been made of wooden blocks, traveling in it to reach Almora, from there via Danya.  The journey ahead started by sitting in a bus going to Pithoragarh, which would end by going to Kandanula.

 The year that the bus ahead of Almora could not be found, that day would have been happy, because on that day you would have got to stay in Almora hotel or guest house, in those days it would have been a big thing for us to stop in the hotel, as well as during the journey.  Fatigue also decreases slightly.

 But on the second day, we would have to go from Almora, after reaching Kandanola by the winding way, as if the fort had been won, it would feel as if an oxygen deficient patient had got oxygen.

 As soon as you got off the bus, people put the goods in front of the only shop built there, sitting on the roadside land, and started to feel tired by slowing down, after an hour when they thought, now they can travel further, then start  Preparations were made, breakfast water was served in the shop, so that the journey of at least 12 kilometers ahead could be done easily, small items were taken along with it, heavy items would be left in the shop, which would come to the villagers the next day.  Used to go

 The 12 kilometer walk was also very difficult, a little climb up the road, then coming down the slope to the river at least 5, I used to dip in water with clothes as soon as I reached the river, this reduced fatigue a lot.  It used to be like, and then after climbing the 7 km steep climb till reaching the village, then tiredness would occur, forbidding the steps to move forward, finally stopping as if somehow reached the village.

 On reaching the village, he would have become so breathless that one day he did not realize that the village had also reached.

 When fatigue subsides in an ideal day, then the environment of the village would start to enjoy itself, the condition of those people would be worse, who would vomit in the journey, because they do not drink anything due to fear of vomiting and due to this they got weakness.  It would have been more difficult.

 As I had avoided this vomiting, so the condition did not get much worse, but the 12-kilometer trek would make me very tired from climbing and descending the footpath.

 After spending a few days in the village, when he came near to return, he would sit back, then he would have to travel the same tired journey, he also had trouble in that, as soon as he reached Kandanola, the bus would travel further tired, but returning  At the same time, many people would have avoided traveling, and would have been deprived of the climate of the mountain.

 I was lucky in this case, that despite a difficult village journey, I was able to go to the mountain every year, and stay connected with my mountain.

 Today the roads have reached the village, the road has reached my village too many years ago, recently a road has moved from the house towards the next village, but now people are not as enthusiastic as before, now people  Villagers avoid coming to the village, they come to the village in very compulsion, which is not right at all, a man should always be attached to his roots, my village should be considered my pilgrimage and come to his village, only then he will be able to stay connected with his roots.

 Recollected memoirs

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टिप्पणियाँ

  1. सुन्दर सही कहा, किन्तु अभी भी कई जगह 3-4 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है है। कुछ जगह रोड से दूरी तो कम हो गई किन्तु 2-3 की दूरी के लिये साधन नहीं मिलते और टैक्सी वाले उस दूरी के लिए 300-से 500 तक वसूलते हैं। हाँ अगर उधर गांव की ओर रहने वाला या जाने वाला अपनी कार से जा रहा होता है तो वह जरूर आपकी मदद ₹100 तक में कर देते हैं जिससे उनका खर्चा भी निकल जाता है। आजकल सुविधाओं के कारण कोई भी पैदल चलना पसंद नहीं करता और इसीलिए धीरे-धीरे पहाड़ में भी लोगों का स्वास्थ्य गिरते जा रहा है अब 100 वर्ष तक जीने वाले बहुत कम लोग हो गए हैं पहले 90 90 वर्ष तक लोग आराम से अपनी दिनचर्या पूरी करते थे सारे काम अपने Swayam किया करते थे

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  2. शानदार । हमारे बचपन की यादें भी कुछ ऐसी ही थी।।

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