हियुन ( सर्दी ) का मौसम ठहरा, ओर मेरा जाना हुआ पहाड़ को ,गर्मियाँ तो बहुत देखी थी, पर हियुन में पहली बार गया ,बस सुना ही रखा था की ,खूब ठंड पड़ती है ,ओर कहीं कहीं तो बर्फ भी पड़ती है।
बस जब हियुन ( सर्दी ) में जाने का मौका पड़ा तो ,खुद को रोक नही पाया ,रानीखेत एक्सप्रेस में टिकट बुक करवाया, ओर निकल पड़ा पहाड़ की ओर ,एक स्लीपिंग बैग साथ रख लिया ,जो यात्रा में बहुत काम आया ,उसके अंदर घुसने के बाद पता ही नही लगा की ठंड का मौसम भी है।
ठंड का पता तो लगा काठगोदाम स्टेशन पर लगा ,सुबह के 4 - 4.30 बजे का समय ,ओर हियुन ( सर्दी ) के दिन ,ओर गजब की ठंड ,शरीर के सारे अंग थरथरा गये थे।
सामान समेट कर स्टेशन से बाहर आया ,ओर स्टेशन के सामने चाय की दुकान की ओर दौड़ काट दी ,एक गिलास चाय ली ओर एक बन लिया ,पर चाय कम पड गई ,एक गिलास ओर लेकर उसे हड़काया ,थोड़ी सी राहत मिली ,ऊपर पहाड़ जाने को एक गाड़ी मिल गई ,उसमें बैठ भीमताल तक चल दिया।
गाड़ी के शीशे बंद होने के कारण ठंड कम हो गई ,एक घंटे के अंदर भीमताल पहुँच गया ,ओर जब उतरा तो फिर थुरुडी ( कपकंपी ) काँप उठी ,यहाँ तो काठगोदाम से भी ज्यादा ठंड थी ,नाक कान में ठंड के मारे दर्द होने लग गया था ,पहाड़ के हियुन ( सर्दी ) ने तो नानी याद दिला थी।
जहाँ जाना था वो जगह रोड से 300 - 400 मीटर की ऊँचाई थी ,तो पैदल चल दिया उस ओर ,पैदल चलने के कारण आँग ( शरीर ) में थोड़ी गर्माहट आई ,आखिरकार कुछ देर चलने के बाद पहुँच गया अपनी पहली मंजिल पर ,हालाँकि अभी तो असली पहाड़ों में जाना था, अब आया था तो जाना ही था ,एक आद दिन भीमताल रुक कर निकल पड़ा आगे के सफर की ओर ,वो भी मोटरसायकल पर।
ठंड के दिन ओर मोटरसायकल पर सफर उचित तो नही था ,पर रास्ते में कई जगह जाना था तो ,खुद का साधन ही बेहतर था ,जिसमें मोटरसायकल सबसे बेहतरीन साधन था ,छोटी मोटी सब जगहों पर इसकी पहुँच में रहती है ,शहर में मेरे पास प्लेटिना है ,पर यहाँ मुझे मिली अपाचे जैसी बाईक ,पंद्रह बीस मिनट तो सैट होने में लग गये।
पहाड़ी सड़कों को नापता हुआ मैं चल पड़ा अपनी अगली मंजिल की ओर ,जो थी धुर यानी वो जगह जहाँ सबसे ज्यादा ठंड पड़ती है ,ठंड क्या बर्फ पड़ती है ,रास्ते में गजब की ठंड थी ,रास्ते में पड़ने वाली कोई चाय की दुकान ऐसी नही छोड़ी जहाँ चाय ना पी हो ,उस दिन जिंदगी की सबसे ज्यादा चाय पी डाली ठहरी ,इतनी चाय शहर में पी लेता तो गैस वैस बन जाती ,पर यहाँ तो चाय बॉडी वार्मर का काम कर रही थी।
ढाई घंटे की यात्रा के बाद आखिरकार पहुँच गया धुर जो शहरफाटक मौरनौला से थोडा सा आगे पड़ता है ,रास्ते के दोनों ओर बर्फ ही बर्फ बिछी हुई थी ,यही हाल उस जगह का था जहाँ मुझे जाना था ,खेत ,रास्ते ,कुड़ी के पाख ,सब बर्फ से अटे पड़े थे ,जीवन में पहली बार बर्फ देखने का अवसर मिला था ,ठंड के मारे बुरा हाल था ,पर आनंद भी आ रहा था ,मुझे तो सियाचिन ग्लेशियर यही लग रहा था ,जहाँ देखो बर्फ ही बर्फ, वहाँ पहुँचते ही एक गिलास चाय हडकाई ,आँग ( शरीर ) को थोड़ी गर्माहट मिली।
मैं तो जूते उतार कर सीधे च्युलियाँन में घुस गया ,वहाँ ठंड नही थी ,चूल्हे की आग से गर्माहट थी ,दीदी ने बड़ी ओर भात बना कर रखा था ,गर्म पानी से हाथ ही धोये ख़ुट ( पैर ) में पानी डालने की जहमत नही उठाई ,जाड़ा ही इतना था ,गरमा गर्म भात ओर बड़ी का साग ओर मूली का सलाद खाया ,ओर घुस गया बिस्तर में जम कर सोया।
नींद खुली तो शाम के चार बज चुके थे ,बाहर अंधेरा सा घिर आया था ,ठंड का तो पूछो मत ,कमरे की खिड़की से आ रही हवा चुभ रही थी ,इतने में चाय आ गई ,चाय सुड़काते हुये खुद को थोडा गर्म किया ,सगड में जलते हुये कोयलों ने कमरा थोडा गर्म कर दिया था ,रात का खाना खा कर सो गया ,सुबह गाँव को जो निकलना था।
सुबह उठ कर देखा तो ओर ज्यादा बर्फ गिर चुकी थी ,शायद रात में बर्फबारी हुई थी ,रास्ते बंद हो चुके थे ,कोई चारा नही था इसलिये रुकना पड़ा ,गनीमत रही की आज ना रात में बर्फ गिरी ओर ना ही सुबह।
दूसरे दिन मौसम थोडा ठीक रहा ,कल की अपेक्षा रास्ते थोड़े खुल गये थे ,हालाँकि सड़क के किनारे बर्फ जमी थी ,पर बीच में बर्फ ना होने से गाड़ियाँ आ जा रही थी ,मैं भी सुबह का नाश्ता करके निकल पड़ा अपने अगले पड़ाव की ओर ,यानी मेरे गाँव की ओर जो यहाँ से 2 - 2.30 घंटे की दूरी पर था।
रास्ते में ठंड बहुत थी ,गर्माहट के लिये सड़क किनारे बनी चाय की दुकानें सहारा थी ,चाय पीता हुआ ओर रुकते रुकाते आखिरकार दिन के 2 बजे के करीब पहुँच गया अपने गाँव ओर इस तरह पूरा हुआ ,मेरा पहाड़ में ये हियुन का सफर।
स्वरचित संस्मरण
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