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खुशाल दद्दा

दद्दा ने कम उम्र में ही अपने परिवार की आर्थिक स्तिथि सुधारने के लिये अपने बौज्यू के साथ काम करने लगे थे।

दद्दा के परिवार में वो सबसे बड़े बेटे थे ,दद्दा के अलावा उनके आमा बूबू , ईजा बौज्यू ओर चार  छोटे भाई - बहिन थी 9 जनों का  भरापूरा परिवार था दद्दा का।

परिवार बड़ा होने के कारण खर्चा भी काफी ठहरा ,आनेजाने वाले मेहमान अलग हुऐ ,खेती पाती से ही सब करना हुआ ,अकेले दद्दा के बौज्यू के बस का कहाँ ठहरा ,इसलिये दद्दा काम में हाथ बँटाने लगे ओर इसके चलते स्कूल छोड़ना पड़ा ,पर दद्दा ने छोटे भाई बहिनों की पढ़ाई नही छुड़वाई ,जो जितना पढ़ सकता था ,उसको उतना पढ़वाया ,दद्दा के अलावा सब अच्छा पढ़ लिख गये ,नही पढ़ पाये तो सिर्फ दद्दा।
दद्दा आपका मन नही करता था क्या पढ़ने को ये सवाल पूछने पर दद्दा बोले भुला मन तो कर छी,  पर परिवार कं ले देखण छी न ,तब पढ़ाई देखण छी या परिवार ,बस पढ़ाई छोड़ बेर परिवार  देखण लाग गयों।
दद्दा अपनी ईजा ओर किसी अन्य सदस्य को कभी ये अहसास नही होने देना चाहते थे की घर में कोई कमी है ,उनको अपनी तरफ से कोई कमी का अहसास नही करवाना चाहते थे ,इसके चलते दद्दा हाडतोड़ मेहनत करते थे ,वो चाहते थे के उनकी तरह उनके भाई बहिनों को पढ़ाई ना छोड़नी पड़े, दद्दा हर वो मुमकिन कोशिश करते रहे ,जिससे उनके परिवार वालों को कोई कष्ट ना हो।

दद्दा ने बौज्यू के साथ मिलकर अपने परिवार को खूब संभाला ,खुद की शादी करी सबको पढ़ाया ,ओर फिर सबकी शादियाँ भी करी ,बहिनों को अपनी हैसियत से ज्यादा साज सामान दिया ,दद्दा की ईजा तब कहती थी ,खुशाला जतुक छ उ में ही ब्या कर ,तब दद्दा कहते ईजा कर्ज पात तो लागी रों ,इज्जत बची रौन चाँ ,तू चिंता न कर सब तारी जाल।

दद्दा ने एक तरह से अपना जीवन परिवार के अन्य सदस्यों के लिये न्यौछावर सा कर दिया था ,वक़्त बीतने के साथ ,दद्दा के भाई लोग पढ़ लिख कर अच्छी नौकरियाँ पा गये ओर शहरों में ही अपने अपने मकान बना कर रहने लगे ,गाँव में रह गये तो बस दद्दा ओर उनका परिवार।

दद्दा ने भले ही अपना जीवन दुश्वारियों में जिया हो पर वो थे बड़े खुद्दार ,कभी हाथ नही फैलाया ओर ना ही किसी से आस करी के वो मदद करे ,हाँ उनसे जितना बन पड़ा उतनी अपनी तरफ से लोगों की मदद जरूर करी।

दद्दा ने एक बार अपने सारे भाईयों को गाँव बुलवाया ,वो भी इसलिये की बौज्यू के न रहने के कारण,  जो उनकी पुश्तैनी जमीन है ,उसमें सब भाईयों व उनके परिवार वालों का नाम चढ़वा दिया जाये,भाई लोग आये दद्दा ने सबके नाम चढ़वा दिये, दद्दा भविष्य के लिये कोई झँझट जो नही रखना चाहते थे ,ऐसी थी दद्दा की नेक सोच ,शायद ही पूरे गाँव में दद्दा जैसी सोच वाला कोई हो।
पर कहते हैं ना के भलाई का जमाना नही है ,ऐसा ही कुछ घट गया दद्दा के साथ ,उस दद्दा के साथ जिसने अपना जीवन अपने परिवार के लिये होम कर दिया था ,हुआ यूँ के दद्दा का बड़ा बेटा इंटर करने के बाद आगे पढ़ना चाहता था ,इसलिये दद्दा की पत्नी  चाहती थी की ,उनके देवर लोग उसे शहर में रख पढ़ा दें ,इसके चलते उन्होंने दद्दा से कहा की,  दयौरों थें कओ की ,हमर हरीश कें ले ,अपण दगड राखी बेर पढ़ा दियो ,ताकि यौ ले क्याई बण जाओ ,एक बार को तो दद्दा ने साफ मना कर दिया की ,उनर अपण खर्च कजियौ छन ,हरीश कें भेज दयौन तो उनर परेशानी बढ़ जाली ,पर पत्नी के बार बार जोर देने पर ,उन्होंने बात करने की हामी भर दी, ओर एक दिन हिम्मत जुटा कर दद्दा ने ,शहर जाकर भाईयों से ,हरीश की पढ़ाई की बात करी, हालाँकि उनका दिल गँवारा नही कर रहा था की ,वो अपने छोटे भाईयों से ऐसी बात करें।

दद्दा ने सोचा था की भाई लोग उनके बेटे को अपने साथ रखकर पढ़वा देंगे ,पर जैसा दद्दा ने सोचा हुआ उसका उलट ,दोनों भाईयों ने अपनी असमर्थता जता दी ,बात इतने भर में भी निपट जाती तो भी ठीक था ,पर दोनों भाईयों की पत्नियों ने ,दद्दा के सामने ही बोल डाला की ,उन्होंने ठेका नही ले हर किसी को पालने का ,बस ये सुनकर दद्दा क्रोध से काँपने लगे ,वो दद्दा जिन्हें कभी किसी ने क्रोधित होते नही देखा ,पहली बार उन्हें क्रोध में देखा ,दद्दा ने आज तक जितना भी ,अपने सीने में जज्ब करके रखा था ,वो सब फट कर ,उनके मुँह से बाहर आ गया।

दद्दा बोले तुम लोग आपु कें की समझ छा ,आज तुम जाँ छा उक थें मैं कें ,कतुक कष्ट सहन करण पड़ो पत्त छ ,खा ना खा बेर तुमर म्यासों कें पढ़ा लिखा उनर ब्या करो ,आज तुम लोग यस कोण छा ,तुम लोग जो लै ,आज छ ना  म्यर बदौलत छा ,ओर तुम लोग कोण छा हमुन ठयाक न ली राखो ,अरे यस मैं ले कै दिनी तो तुम लोग आज याँ न हुणा ,ओर सुन लियो ,च्योल तो पढोल ओर शहर में रै बेर पढोल अब ,जब मैं तुम लोगों कें पढ़ा सकछु तो, ये कें ले पढ़ा ल्योन ,हाँ आज बैठि दद्दा कोई दद्दा ले छी यौ भुल जाया ,ओर आबेर अपण अपण हिस्स ली जाया ,क्योंकि बहुत कर ले तुम समूही, अब न हुण म्यार कें तुम जस लोगों ही क्या ले।

इसके बाद दद्दा उठे ओर उनके वहाँ से निकल गये, ये बुदबुदाते हुये की हे देबता पत्त न कां कमी रै गे मेर तरफ बैठि ,जो आज यौ सब सुन्ने मिलों।

स्वरचित लघु कथा 

सर्वाधिकार सुरक्षित

हिंदी अनुवाद 

खुशाल दद्दा 
दद्दा ने कम उम्र में ही अपने परिवार की आर्थिक स्तिथि सुधारने के लिये अपने पिता के साथ काम करने लगे थे।

दद्दा के परिवार में वो सबसे बड़े बेटे थे ,दद्दा के अलावा उनके दादा दादी , माँ व पिताजी ओर चार  छोटे भाई - बहिन थे , 9 जनों का परिवार था दद्दा का।

परिवार बड़ा होने के कारण खर्चा भी काफी था ,समय समय पर मेहमान आदि आते रहते थे  ,खेती से ही सब करना पड़ता था  ,अकेले दद्दा के पिता के बस का कहाँ थी ,इसलिये दद्दा काम में हाथ बँटाने लगे ओर इसके चलते स्कूल छोड़ना पड़ा ,पर दद्दा ने छोटे भाई बहिनों की पढ़ाई नही छुड़वाई ,जो जितना पढ़ सकता था ,उसको उतना पढ़वाया ,दद्दा के अलावा सब अच्छा पढ़ लिख गये ,नही पढ़ पाये तो सिर्फ दद्दा।

दद्दा आपका मन नही करता था क्या पढ़ने को ये सवाल पूछने पर दद्दा बोलते  मन तो करता था,  पर परिवार को भी तो देखना था ,तब पढ़ाई देखता या परिवार ,बस पढ़ाई छोड़ परिवार को संभालने लग गया।

दद्दा अपनी माँ ओर किसी अन्य सदस्य को कभी ये अहसास नही होने देना चाहते थे की घर में कोई कमी है ,उनको अपनी तरफ से कोई कमी का अहसास नही करवाना चाहते थे ,इसके चलते दद्दा हाडतोड़ मेहनत करते थे ,वो चाहते थे के उनकी तरह उनके भाई बहिनों को पढ़ाई ना छोड़नी पड़े, दद्दा हर वो मुमकिन कोशिश करते रहे ,जिससे उनके परिवार वालों को कोई कष्ट ना हो।

दद्दा ने पिता के साथ मिलकर अपने परिवार को खूब संभाला ,खुद की शादी करी सबको पढ़ाया ,ओर फिर सबकी शादियाँ भी करी ,बहिनों को अपनी हैसियत से ज्यादा साज सामान दिया ,दद्दा की माँ  कहती भी थी ,खुशाल जितना है उसी में इनकी शादियाँ कर ,तब दद्दा कहते माँ कर्ज तो लगा रहता है ,बस इज्जत खराब नही होनी चाहिये,तू चिंता न कर सब चुक  जायेगा।

दद्दा ने एक तरह से अपना जीवन परिवार के अन्य सदस्यों के लिये न्यौछावर सा कर दिया था ,वक़्त बीतने के साथ ,दद्दा के भाई लोग पढ़ लिख कर अच्छी नौकरियाँ पा गये ओर शहरों में ही अपने अपने मकान बना कर रहने लगे ,गाँव में रह गये तो बस दद्दा ओर उनका परिवार।

दद्दा ने भले ही अपना जीवन दुश्वारियों में जिया हो पर वो थे बड़े खुद्दार ,कभी हाथ नही फैलाया ओर ना ही किसी से आस करी के वो मदद करे ,हाँ उनसे जितना बन पड़ा उतनी अपनी तरफ से लोगों की मदद जरूर करी।

दद्दा ने एक बार अपने सारे भाईयों को गाँव बुलवाया ,वो भी इसलिये की पिता के न रहने के कारण,  जो उनकी पुश्तैनी जमीन है ,उसमें सब भाईयों व उनके परिवार वालों का नाम चढ़वा दिया जाये,भाई लोग आये दद्दा ने सबके नाम चढ़वा दिये, दद्दा भविष्य के लिये कोई झँझट जो नही रखना चाहते थे ,ऐसी थी दद्दा की नेक सोच ,शायद ही पूरे गाँव में दद्दा जैसी सोच वाला कोई हो।

पर कहते हैं ना के भलाई का जमाना नही है ,ऐसा ही कुछ घट गया दद्दा के साथ ,उस दद्दा के साथ जिसने अपना जीवन अपने परिवार के लिये होम कर दिया था ,हुआ यूँ के दद्दा का बड़ा बेटा इंटर करने के बाद आगे पढ़ना चाहता था ,इसलिये दद्दा की पत्नी  चाहती थी की ,उनके देवर लोग उसे शहर में रख पढ़ा दें ,इसके चलते उन्होंने दद्दा से कहा की,  देवरों को कहो की  ,हमारे हरीश को भी ,अपने साथ रखकर पढ़ा दो  ,ताकि ये भी कुछ बन जाये ,एक बार को तो दद्दा ने साफ मना कर दिया की ,उनके  अपने खर्च बहुत हैं  ,हरीश को  भेज देंगे तो उनकी परेशानी बढ़ जायेगी  ,पर पत्नी के बार बार जोर देने पर ,उन्होंने बात करने की हामी भर दी, ओर एक दिन हिम्मत जुटा कर दद्दा ने ,शहर जाकर भाईयों से ,हरीश की पढ़ाई की बात करी, हालाँकि उनका दिल गँवारा नही कर रहा था की ,वो अपने छोटे भाईयों से ऐसी बात करें।

दद्दा ने सोचा था की भाई लोग उनके बेटे को अपने साथ रखकर पढ़वा देंगे ,पर जैसा दद्दा ने सोचा हुआ उसका उलट ,दोनों भाईयों ने अपनी असमर्थता जता दी ,बात इतने भर में भी निपट जाती तो भी ठीक था ,पर दोनों भाईयों की पत्नियों ने ,दद्दा के सामने ही बोल डाला की ,उन्होंने ठेका नही ले हर किसी को पालने का ,बस ये सुनकर दद्दा क्रोध से काँपने लगे ,वो दद्दा जिन्हें कभी किसी ने क्रोधित होते नही देखा ,पहली बार उन्हें क्रोध में देखा ,दद्दा ने आज तक जितना भी ,अपने सीने में जज्ब करके रखा था ,वो सब फट कर ,उनके मुँह से बाहर आ गया।

दद्दा बोले तुम लोग अपने को क्या समझते हो  ,आज तुम जहाँ हो उसके लिये मुझे कितने कष्ट उठाने पड़े पता है तुम्हें ,खा ना  खाकर  ,तुम्हारे पतियों को पढ़ाया  उनकी शादियाँ भी करी  ,आज तुम लोग ऐसा बोल रहे हो ,तुम लोग जो भी आज हो ,मेरी  बदौलत हो ,ओर आज तुम लोग कह रहे हो ,क्या हमने ठेका नही ले रखा ,अरे ऐसा मैं भी कह देता ले तो ,तुम लोग आज यहाँ ना होते ,ओर सुन लो बेटा तो पढ़ेगा,  ओर शहर में रह कर पढेगा  अब ,जब मैं तुम लोगों कें पढ़ा सकता हूँ तो, इसको भी पढ़ा लूँगा ,हाँ आज बाद कोई दद्दा भी था तुम लोगों का ये भूल जाना ,ओर आकर अपने अपने  हिस्से की जमीन ले लेना,क्योंकि बहुत कर लिया तुम सब के लिये , अब नही होगा मेरे से ,तुम जैसे स्वार्थी लोगों के लिये कुछ भी।

इसके बाद दद्दा उठे ओर उनके वहाँ से निकल गये, ये बुदबुदाते हुये की हे ईश्वर पता नही कहाँ कमी रह गई मुझसे ,जो आज ये  सब सुनने को मिला।

स्वरचित लघु कथा 

सर्वाधिकार सुरक्षित

English translation

 Khushal Dadda
 Dadda started working with his father at an early age to improve the financial condition of his family.

 He was the eldest son in Dadda's family, apart from Dadda, his grandparents, mother and father and four younger brothers and sisters were there, Dadda's family was of 9 people.

 Due to the big family, the expenses were also enough, guests used to come from time to time.  But Dadda did not get rid of the education of younger brothers and sisters, who read as much as he could, got him to read as much as he could, except Dadda, everyone could read and write well, if he could not read then only Dadda.

 Dadda did not feel like you, did you feel like talking to you when you asked this question to study, but had to see the family too, then watching studies or family, just left studies and started taking care of the family.

 Dadda never wanted to let his mother and any other member feel that there is any shortage in the house, he did not want to make them feel any lack from his side, because of this Dadda used to work hard, he wanted to be like him.  His brothers and sisters did not have to leave their studies, they kept on trying their best so that their family members would not suffer.

 Dadda, along with his father, took care of his family a lot, got himself married, taught everyone, and then married everyone, gave more equipment to his sisters than his status, Dadda's mother used to say, Khushal is as much as his marriages.  Taxes, then Dadda says that the mother is indebted, just the respect should not be spoiled, you will pay off everything without worrying.

 Dadda had, in a way, sacrificed his life for the other members of the family, with the passage of time, Dadda's brothers got good jobs by studying and writing their own houses in the cities and started living in the village.  If you go, just Dadda and his family.

 Dadda may have lived his life in miseries, but he was very honest, never spread his hand nor expected anyone to help him, yes as much as he could from him, he definitely helped people from his side.

 Dadda once called all his brothers to the village, that too because the father's absence, which is his ancestral land, the names of all the brothers and their family members should be offered in it, brothers came, Dadda got everyone's names offered.  Dadda, who did not want to keep any trouble for the future, such was Dadda's noble thinking, there is hardly anyone in the whole village with a thinking like Dadda.

 But it is said that there is no time for goodness, something similar happened with Dadda, with that Dadda who had given his life to his family, it happened that Dadda's eldest son wanted to study further after entering.  That's why Dadda's wife wanted her brother-in-law to teach her by keeping her in the city, because of this, she told Dadda that, tell her brothers-in-law, keep our Harish with you and teach, so that this too becomes something.  Once upon a time, Dadda clearly refused, that his own expenses are too much, if he sends Harish, then his trouble will increase, but on repeated insistence of his wife, he agreed to talk, and one day the courage  After gathering, Dadda went to the city and talked to the brothers about Harish's studies, although he was not losing his heart that he should talk to his younger brothers like this.

 Dadda had thought that the brothers would make their son study by keeping them with them, but contrary to what Dadda thought, both the brothers expressed their inability, even if the matter would have been settled for so long, it was fine, but the wives of both the brothers  Said in front of Dadda that he didn't take the contract to raise everyone, just hearing this Dadda started trembling with anger  Till now, whatever I had kept in my chest, it all burst out from my mouth.

 Dadda said what do you think of yourself, I know how much trouble you have to suffer for where you are today, you did not eat, taught your husbands, did their marriages, today you are saying like this, whatever you people  Today, it is because of me, and today you are saying, have we not taken the contract, oh if I had said so, you would not have been here today, and listen, the son will study, and by living in the city  Will read now, when I can teach for you people, I will also read it, yes after today there was some problem, forget this, and come and take your share of land, because I have done a lot for all of you.  Now nothing will happen to me, for selfish people like you.

 After this, Dadda got up and left from there, muttering that God, I do not know where I am missing, who got to hear all this today.

 composed short story

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