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बैचेनी

पहाड़ घूमने का शौक मुझे बचपन से ही रहा, ओर उसमें भी इंटीरियर पहाडी क्षेत्रों का भ्रमण मुझे बेहद पसंद रहा है।

पुराने गाँव ओर वहाँ बने पुराने मंदिर व पुरानी कुडियाँ ( घर ) मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं ,इस बार भी जब एक गाँव में जाने का अवसर मिला ,ओर वहाँ जाकर पता चला की ,गाँव की ऊँची पहाड़ी पर एक पुराना थान है ,बस फिर क्या था ,उठा कर अपनी झोला झन्टी निकल पड़ा उस ओर।

कुछ दूरी तय करने के बाद एक बूढ़े बूबू बकरी चराते हुये मिल गये ,उन्होंने पूछा काहीं जाण छा महाराज ( कहाँ जा रहे हो महाराज )  ,जब मैंने उन्हें मंदिर के बारे में बताया तो ,वो बोले वां जाबेर बैचैनी जस है जाँ ( वहाँ जाकर अजीब सी बैचेनी हो जाती है ) ,ये लीजी कोई वां न जाण ( इसलिये वहाँ कोई नही जाता ) ,तुम जाँण छा तो थोडा ध्यान राखिया आपण (तुम जा रहे हो तो थोड़ा ध्यान रखना अपना ) ,मेर हिसाबे ली तो न जाओ तो ठीक रौल (मेरे हिसाब से तो ना जाओ तो ठीक रहेगा ) ,पर भला जिज्ञासु कहाँ रुकता है ओर इसलिये मैं भी नही रुका ,ओर बूबू के इस सवाल को साथ लेकर ,मैं निकल लिया मंदिर की ओर।

वहाँ पहुँच कर देखा की ऊँची पहाड़ी पर बने थान ( मंदिर ) में ,थान के नाम पर एक बड़ा सा घाँट ( बड़ा सारा घंटा ) था बस  ,घाँट भी इतना बड़ा के ,अच्छे अच्छे मंदिरों में देखने को ना मिले ,वहाँ ना कोई मंदिर का ढाँचा था ,ओर ना ही कोई धूनी ,वहाँ जाने पर एक अजीब सी खामोशी महसूस होती थी ,ऐसी खामोशी के मानो सवाल पूछ रही हो ,के क्या मकसद लेकर आये हो तुम यहाँ।
मन में ये सवाल था की इतना बड़ा घाँट ,ओर इतनी ऊँची जगह पर ,क्यों ओर किस मकसद से लगाया गया होगा ,ओर किसने लगाया गया होगा ,घाँट के हिसाब से इस स्थान पर ,कोई बड़ा ओर विशाल मंदिर होना चाहिये था ,ओर अगर था तो उसके अवशेष होने चाहिये थे ,पर वहाँ तो ऐसा कुछ देखने में नही आया ,ओर कमाल की बात ये की, आसपास के इलाके के लोगों को ,इसके बारे में किसी भी तरह की ,कोई जानकारी भी नही थी।

मेरे लिये तो ये कौतूहल का विषय हो गया ,दिमाग बस यही सवाल कर रहा था की ये घाँट यहाँ क्यों लगा होगा ,किसने लगाया होगा ,बस इतना पता था की ऐसे घाँट मंदिरों में लगाये जाते थे ,पर यहाँ कहानी दूसरी थी की ,यहाँ घाँट तो था पर मंदिर ओर मंदिर के अवशेष नाम की कोई चीज नही थी ,बस सपाट मैदान था।
लकड़ी के बड़े खंभों के बीच लटकता ये घाँट था ,ओर सामने हिमालय की एक बड़ी श्रॄंखला नजर आती थी बस, क्या इस घंटी का संबंध हिमालय की श्रॄंखलाओं से था या कुछ  ओर कारण था ,क्योंकि घाँट ओर हिमालय की शृंखला के बीच ओर कुछ नही था ,उन्हें देख कर लगता था की ये एक दूसरे को देख रही है ,हो सकता है प्राचीन काल में इस घाँट के माध्यम से उन पर्वत श्रॄंखलाओं में रहने वाले देवों का आवाहन किया जाता हो, पर ये सिर्फ सवाल भर बन कर दिमाग में घूम रहे थे ,इनका जवाब देने वाला कोई नही था ,स्थानीय लोगों को तो इस जगह की क ख ग तक पता नही थी।

शुक्र इस बात का था की ,जो भी था यथावत था ,कोई इस घाँट को चुरा कर नही ले गया ,उस घाँट की विशालता ओर मार्ग की दुरुहता ने इसे अब तक सुरक्षित रखा, वरना उत्तराखण्ड की प्राचीन धरोहरों की चोरियाँ बहुत हुई हैं ,प्राचीन मूर्तियों ,घंटियों को तस्कर चुरा ले गये।

मेरी नजरें मंदिर के अवशेष तलाश कर रही थी ,पर कुछ नजर नही आ रहा था ,समझ नही आ रहा था की अवशेष कहाँ गये ,आखिर कुछ तो दिखता ,ना कोई मूर्ति ना धूनी ओर ना ही कोई ढाँचा।

गौर से देखने के बाद एक चीज जो नजर आई ,वो ये थी के यहाँ जो मैदान है ,वह बिल्कुल समतल है ,ना कहीं से ऊँचा ओर ना कहीं से नीचा ,यानी इस जगह का समतलीकरण किया गया था ,यानी इसे किसी ने समतल तो किया था ,अब किस मकसद से किया गया था ,ये तो पता नही पर ,ये कार्य मानव द्वारा किया था इतना जरूर था।

थान तक पहुँचने के लिये एकदम सीधी चढ़ाई थी ,जो की बहुत छोटी छोटी पगडंडियों पर चल कर ही चढ़ी जा सकती थी ,पैदल चल कर थान तक पहुँच पाना अत्यंत दुष्कर कार्य था ,फिर इतने विशाल घाँट को कैसे यहाँ तक लाया गया होगा ,ये भी अचरज का विषय था ,साथ ही लकड़ी के दो ,विशाल खम्भे कैसे पहुँचे होंगे ,क्योंकि इतने बड़े पेड़ आसपास नही थे ,मैदान के ऊपर सिर्फ आसमान था ,ऐसे पेड़ तो इस मैदान से दो किलोमीटर नीचे की तरफ उगे हुये थे ,इतने विशाल लट्ठों को कैसे पहुँचा पाये होंगे ,ये सवाल ओर दिमाग में सवार हो उठा था ,दिमाग भन्ना चुका था इन चीजों को देखकर ,सो वहाँ से लौट आया ,ताकि थोड़ी शान्ति के साथ कुछ सोच सकूँ।

सारी रात ढंग से सो नही पाया ,क्योंकि मन मष्तिष्क में वो जगह ,ओर उससे जुड़े सवाल ही  घूम रहे थे ,ओर उन सवालों के जवाब को तलाशने में मन बैचेन हो उठा था ,वास्तव में उन बूढ़े बूबू ने सही कहा था की वां जाबेर बैचेनी है जाँ।

सही कहा था उन बूबू ने क्योंकि वहाँ जाकर बैचेनी हो जाती है ,ओर वो भी इस बात की के,  जब मंदिर नही है तो इतना बड़ा घंटा क्यों लगाया गया ,ओर चलो लगा दिया तो चढ़ाया कैसे गया ,चलो चढ़ा दिया गया तो ,इतने बड़े लट्ठे पर लटकाया कैसे गया ,चलो लटका भी दिया गया तो ,इतने बड़े लट्ठों को वहाँ तक पहुँचाया कैसे गया ,यानी सवाल दर सवाल में उलझ कर बैचेनी होना तो स्वाभाविक है।

स्वरचित लघु कथा 
सर्वाधिकार सुरक्षित

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