दसियों किलोमीटर तक सड़क का तब नामोनिशान नही था, जो लोग बाहर रहते थे, वो बस में बैठने के लिये ,पहले 7 किलोमीटर ढलान में उतरते हुये गाड ( नदी ) तक पहुँचते, फिर 5 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ कर एक पहाड़ को पार करते हुये सड़क तक पहुँचते, मैं भी बचपन में कई बार उस रास्ते गया हूँ। गाँव जाना बेहद पसंद ठहरा बचपन से, हल्द्वानी से केमू ( कुमाऊँ मोटर ऑपरेटर यूनियन ) की बस , जो की तब ट्रकनुमा हुआ करती थी, ओर सीटें लकड़ी के पटरे से बनी हुई होती, उसमें सफर करते हुये अल्मोड़ा तक पहुँचते, वहाँ से वाया दन्या होते हुये पिथौरागढ़ जाने वाली बस में बैठ कर आगे का सफर शुरू होता, जो की काँडानौला जाकर खत्म होता। जिस साल अल्मोड़ा से आगे की बस नही मिल पाती, वो दिन खुशी का होता, क्योकिं उस दिन अल्मोड़ा होटल या गेस्ट हाउस में रुकने को मिलता, उन दिनों होटल में रुकना बहुत बड़ी बात हुआ करती हमारे लिये तो, साथ ही सफर के दौरान हुई थकान भी थोडा़ कम हो जाती। पर दूसरे दिन तो जाना ही पड़ता अल्मोड़ा से ,पहाड़ी घुमावदार रास्ते से काँडानौला पहुँचते ही ऐसे लगाता, जैसे गढ जीत लिया हो, ऐसा महसूस होता जैसे किसी आक्सीजन की कमी वा...
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