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अकेलापन

अकेलापन  बूबू अपने मकान के अंदर बैठे टकटकी लगाये बाहर देखते अक्सर मिल जायेंगे ,बड़े सारे मकान में अब सिर्फ बूबू ही बचे हैं ,आमा कुछ सालों पहले चल बसी ,चेलियों को बिवा ( शादी ) दिया ओर इकलौता बेटा रोजगार की तलाश में ऐसा निकला की लौट कर ही नही आया। बूबू का भरी पूरी कुड़ी ( घर )आज बिल्कुल खाली हो चुकी है ,बस बूबू ही यहाँ रहकर, कुड़ी को ये अहसास करवाते हैं की ,मैं याँ रों छू ( मैं यहाँ रहता हूँ )। कभी गाय बकरियों से भरा रहने वाला गोठ आज खाली पड़ा ,किलों पर बँधे ज्योड ये बतलाते हैं की कभी हम भी काम के थे। बौनाव के पत्थर भी अब दिखने से लगे हैं ,गोबर मिट्टी की लिपाई उखड़ गईं है ,ओर अब बूबू से हो  नही हो पाती ,भीतर जरूर लिपलाप कर रहने लायक बना रखा है ,शायद इतनी ही ताकत शेष रह गईं है अब बूबू के अंदर। कुड़ी अभी तक खड़ी व ठीकठाक है ,पाख अभी चूने नही लगा था ,चुल्यान में चूल्हा जो जलने वाला हुआ ,ओर उसके ध्वा ( धुयें ) से पाख की लकड़ियों को मजबूती मिल रही है ,कोई नही रहता तो, पाख कब की लकड़ियाँ कब की सड़ गईं होती। बूबू अभी भी  माठू माठू ( धीरे धीरे ) ही सही अपने काम कर निपटा लेते हैं...

खुशाल दद्दा

दद्दा ने कम उम्र में ही अपने परिवार की आर्थिक स्तिथि सुधारने के लिये अपने बौज्यू के साथ काम करने लगे थे। दद्दा के परिवार में वो सबसे बड़े बेटे थे ,दद्दा के अलावा उनके आमा बूबू , ईजा बौज्यू ओर चार  छोटे भाई - बहिन थी 9 जनों का  भरापूरा परिवार था दद्दा का। परिवार बड़ा होने के कारण खर्चा भी काफी ठहरा ,आनेजाने वाले मेहमान अलग हुऐ ,खेती पाती से ही सब करना हुआ ,अकेले दद्दा के बौज्यू के बस का कहाँ ठहरा ,इसलिये दद्दा काम में हाथ बँटाने लगे ओर इसके चलते स्कूल छोड़ना पड़ा ,पर दद्दा ने छोटे भाई बहिनों की पढ़ाई नही छुड़वाई ,जो जितना पढ़ सकता था ,उसको उतना पढ़वाया ,दद्दा के अलावा सब अच्छा पढ़ लिख गये ,नही पढ़ पाये तो सिर्फ दद्दा। दद्दा आपका मन नही करता था क्या पढ़ने को ये सवाल पूछने पर दद्दा बोले भुला मन तो कर छी,  पर परिवार कं ले देखण छी न ,तब पढ़ाई देखण छी या परिवार ,बस पढ़ाई छोड़ बेर परिवार  देखण लाग गयों। दद्दा अपनी ईजा ओर किसी अन्य सदस्य को कभी ये अहसास नही होने देना चाहते थे की घर में कोई कमी है ,उनको अपनी तरफ से कोई कमी का अहसास नही करवाना चाहते थ...

हलिया

गुमानी का नाम कब ,हलिया गुमानी पड़ गया, उसे खुद पता नही ,पूरा गाँव उसे गुमानी हलिया के नाम से ही पहचानता था ,कोई अगर उसे गुमानी के नाम से ढूँढें तो गाँव वाले समझ नही पाते थे की कौनसा गुमानी को पूछ जा रहा है। गुमानी को लोग हलिया कैसे कहने लगे ,इसके पीछे एक लम्बी कहानी है ,गुमानी कभी स्कूल जाया करता था ,ओर पढ़ने में काफी होशियार भी हुआ करता था ,पर किस्मत का पासा ऐसा पलटा की ,पढ़ने वाले गुमानी की पढ़ाई छूट गई ,ओर उसे लोगों का हल जोतना पड़ा ,हुआ यों की गुमानी के बौज्यू लोगों के खेतों में हल जोत कर ,अपने परिवार का भरण पोषण करते थे, जीवन ठीक ठाक चल रहा था ,गुमानी तब पढ़ने स्कूल जाया करता था ,होशियार होने के कारण ,गाँव के लोग कहते भी थे की खिम्मू हलियोक च्योल क्याई न क्याई बनोल ,ओर ये सच भी था ,क्योंकि गुमानी जिस तरह से अव्वल आता था ,उससे लगता भी था की ,वो पढ़ लिख कर कोई अच्छी नौकरी पा लेगा। पर कहते हैं ना की जब बुरे दिन आते हैं तो चारों तरफ से आते हैं ,ऐसा ही कुछ गुमानी के परिवार के साथ हुआ ,एक दिन हल जोतते समय गुमानी के बौज्यू के पैर में हल का फाव बुड़ ( घुस ) पड़ा ,गुमान...

धन्ना बोजी क चाहा - धन्ना भाभी की चाय

धन्ना बोजी आज बेहद थकी थकी सी लग रही थी ,उनके पैर मानो उनका साथ ही नही दे रहे थे ,पसीने में तरबतर होकर वो थोड़ी देर पहले ही खेत से गेहूँ काट कर लौटी ही थी। वो आते ही घर के बोनाव में पैर पसार कर बैठ गई ,ओर अपनी चैली को आवाज लगाते हुये बोली भग्गू एक लौट्टी ठंड पाणी दी दे जरा ,तीसेली हाल खराब है गी। भग्गू अपनी ईजा की आवाज सुनते ही तुरंत एक लोटा ठंडा पानी ले आई ,धन्ना बोजी ने पानी पिया ,थोड़ी राहत सी महसूस हुई ,फिर भग्गू को आवाज लगाई की एक गिलास चहा बना ला तो  जरा। जवाब में भग्गू बोली ईजा दूध बिराउ पी गौ आज ,न जाणी कस्ये ,काई चहा बणा बेर ली ओं छू।  धन्ना बोजी को तो चहा चाहिये था ,अब दूध वाली हो या बिना दूध की ,तो वो बोली काई बना ला पे ,गूड जरा ठुल ठुल ली आये।  भग्गू चाय बना लाई ,धन्ना बोजी सुड़ुक मारते हुये चाय पीने लग गई ,उनके सुड़ुक मारने की आवाज आसपास तक सुनाई दे रही थी। चाय पीने के बाद धन्ना बोजी कुछ देर तक तो पसरी बैठी रही ,फिर उठी शायद उनकी चहा ने उन्हें कुछ एनेर्जी प्रदान कर दी थी ,उन्होंने भग्गू को आवाज दी ,तू जल्दी पाणी भर ला ,तब तक मैं भात दाव पका ली छू ,तेर...

पहाड की पीड़ा - Mountain Pain

पहाड की ईजाओं के नसीब में सिर्फ घर सम्भालना ही नही होता, बल्कि अपने नौजवान बेटों के दूर होने का दर्द भी होता है। पहाड के लिये जिसने भी ये कहावत गढ़ी है, वो कितनी सटीक है की पहाड की जवानी ओर पहाड का पानी पहाड के काम नही आता। जहाँ भी जाओ वहाँ की ईजाओं का ये दुख एक सा दिखाई देता है, अपने बेटों की चिंता करती इजाऐ आपको हर कहीं दिखाई दे ही जायेंगीं। अगर कोई उस शहर से जहाँ उसका बेटा गया है, गाँव आ जाये तो ईजाये दौड़ दौड़ कर उस शख्स से मिलने आ जाती है, मकसद होता है, अपने बेटों का हाल जानने का। मैं भले ही शहर में ही पैदा हुआ पर गाँव से निरंतर जुड़ाव रखा, इस नाते गाँव के लोग मुझे जानते हैं, मैनें तभी इस बात को प्रत्यक्ष महसूस किया है। इन ईजाओं का अपने बेटों से बिछोह का दुख देखकर अत्यंत दुख होता है, क्योकिं मुझे पता है, जब इन ईजाओं के बेटे शहरों में आते हैं तो उन्हें कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, नया शहर, नया काम, ओर अनुभव की कमी उनके रास्तों की जंजीरें बन कर रास्ता रोक देती हैं, तब ईजा का वो बेटा छटपटा उठता है, भूखा प्यासा ओर बेघर वो बेटा, चिंतित हो उठता है की अब न जाने क्या होग...

बच्ची का - Bachi uncle

ओ बच्ची का कहाँ को भाग दौड़ हो रही है रत्ती ब्यान (सुबह सुबह ) ,बच्च दा को टोकते हुये गोपाल दा बोले, सुनते ही बच्ची का पलटे ओर बोले फाव मारने (मरने ) जा रहा हूँ , चलेगा क्या। गोपाल दा खितखित हँसते हुये बोले, वहाँ तुम ही जाओ, पर चाय पीकर जाना आ जाओ।  फटा जूता, सिर पर टोपी, ढीली सी पतलून ओर ऊपर फटी सी स्वेटर पहने बच्ची का ,चाय का नाम सुनते ही बड़ी ठसक से खुट में खुट (पाँव में पाँव ) रखकर आँगन में आकर बैठ गये, ओर जोर की आवाज लगा कर बोले , ओ ठुल ईजा (ताई ) गुड जरा ठुल ठुल लाये (गुड जरा बड़ा बड़ा लेकर आना ) , कम मिठ में पी जस न लागीन (कम मीठे में चाय पी जैसी नही लगती ), अक्रिम (अजीब )स्वाद हो जाता है चाय का। बच्ची का गाँव के हर घर को अपना घर सा ही मानते थे, इसके चलते ही वो इस तरह की बात अधिकारपूर्ण बोल जाते थे। बच्ची का जवाब देने में बड़े हाजिर  थे, लोग मजाक करते तो बच्ची का ऐसा जवाब देते की सामने वाला खिसिया कर रह जाता, वैसे बच्ची का थे सीधे व सरल इंसान । गाँव में बस उनकी टूटा फूटा मकान था, बाकि जमीन जायदाद तो उनके रिश्तेदार खा गये थे,जब वो बहुत छोटे थे, उनके पिता का देहांत...

पहाडी चिडिया - Mountain Bird

रेबा ,गाँव में उसे सब इसी नाम से पुकारते थे, वैसे उसका नाम ठहरा रेवती। किशन दा की चैली रेबा को पहाड़ से बड़ा लगाव था,जब उसके साथ की लड़कियाँ हल्द्वानी शहर की खूबियों का बखान करती तो, रेबा बोल उठती, छी कतुक भीड़ भाड़ छ वाँ, नान नान मकान छ्न, गरम देखो ओरी बात, मैं कें तो बिल्कुल भल न लागण वाँ,मैं कें तो पहाड भल लागु, ठंडी हौ, ठंडो पाणी, न गाडियों क ध्वा, ना शोर शराब ,पत्त न की भल लागु तुमुके हल्द्वानी, मैं कें तो प्लेन्स बिल्कुल भल न लागण। रेबा पहाड़ की वो चिडिया थी, जिसकी जान पहाड़ में बसती थी, उसके लिये पहाड़ से अच्छी जगह कोई नही थी, रेबा सुबह जल्दी उठ कर ,सबके लिये चाय बनाती फिर स्कूल जाती, वहाँ से आकर घर का छोटा मोटा काम निपटाती, ओर फिर पढ़ने बैठ जाती,ये रेबा की दिनचर्या का हिस्सा था। रेबा अब इन्टर कर चुकी थी, किसन दा अब उसके लिये लड़का ढूँढने लग गये थे, ताकि समय पर उसके हाथ पीले हो सके।पर रेबा चाहती थी की उसकी शादी पहाड़ में ही कहीं हो, उसने अपनी ईजा को भी बोल दिया था की ,तू बाबू थें कै दिये मेर ब्या पहाड़ में ही करिया, भ्यार जण दिया। इधर किसन दा रेबा के लिये...

पश्चाताप - remorse

देबुली को अपने घर आये 6 महीने बीत गये थे, छोटी सी बात पर वो अपनी सास से झगडा कर बैठी थी, ओर अपने पीहर आ गई। कभी इस घर की लाडली देबुली को यहाँ आकर अहसास हुआ की, अब वो पहले जैसी लाडली नही रही यहाँ,अब उसके घर वालों का व्यवहार उसके प्रति रूखा रूखा सा था,पर देबुली क्या करती, उसके पास ओर कोई चारा भी नही था। अब देबुली को अपना ससुराल याद आ रहा था, कैसे वो इकलौती बहु होने के कारण पूरे घर पर राज करती थी, बस थोडा़ सास ही तो टोका टोकी करती थी, बाकी तो सब ठीक ही थे। उसे इस बात पर पछतावा हो रहा था की, छोटी सी बात पर उसने घर छोड़ने का फैसला ले लिया। देबुली अब वापस अपने घर जाना चाहती थी, वो घर जहाँ उसकी पूछ थी,पर अब जाये तो  जाये कैसे, वो ही तो घर छोड़ कर आई थी। देबुली सारे दिन यही सोचती रही की, कैसे वापस जाऊ, उसे समझ नही आ रहा था की, किस तरीके से उसकी घर वापसी हो। काफी सोचने के बाद उसने तय किया की, चाहे कुछ भी हो जाये,अब वो अपने घर वापस जायेगी। सुबह होते ही उसने पानी का बर्तन पकडा ओर पानी भरने के बहाने निकल गई ओर रास्ते से उसने अपनी सास के नंबर पर फोन किया,ये सोच कर के उनसे ...

कुलोमणि का भुट्टा

कुलोमणी जोशी ब्रहामण कुल में जरूर पैदा हुआ , पर पढ़ाई नही करी ठहरी , ऐसा नही की घर वालों ने स्कूल नही डाला ठहरा , पर कुलोमणी का मन लगे तब स्कूल जाता ना। घर से झोला लेकर रोज निकलता ओर आधे रास्ते से गायब ,कभी ऊँचे डाँडे में टाइम बीता देता तो 'कभी गाड (नदी ) में जाकर मछली पकड़ता रहता ऐसे ही दिन बीता दिये ठहरे ओर रह गया ठहरा अनपढ़।  बोज्यू ने कितनी बार खूब चूटा ( मारा ) भी पर कुलोमणी को नही पढ़ना था सो नही पढ़ा , साथ के सभी ब्रहामण पुत्र पूजा पाठ करवाने लगे पर कुलोमणी को इसकी क ख ग भी नही आती थी।  इधर बोज्यू कभी कभी बोलते साला काहे का कुलोमणी कुल खामणी निकला ये , पता नही कैसे पेट भरेगा , पूजापाठ के काम का तो है नही।  तब कुलोमणी की ईजा बोलती , करेगा कुछ देख लेना , पूजापाठ ना सही तो कुछ ओर करेगा , ऐसा मत बोला करो बल तुम इसको , इकलौता है भाग गया तो क्या करेंगे बल ,  पर कुलोमणी कहाँ भागने वाला था , उसे तो ये पहाड़ नही जाने देते थे।  थोडा ओर बड़ा हुआ तो , समझ आई की कुछ करना पड़ेगा , बोज्यू की पूजापाठ अब कम हो चली थी , इधर उधर ज्यादा भाग नही पाते थे।  पर वो कर...

बौजी ओर गोप्प दा

बौजी गोप्प दा की घरवाली हुईं, बौजी ठहरी एकदम सीधी साधी,पर बहुत दुख देखे ठहरे बौजी ने अपने जीवन में,माँ बाप थे नही, तो ठुलबौज्यू ने पाला था उन्हें, बौजी की ठुलईजा को बौजी फूटी आँख नही सुहाती थी,शायद वो एक ओर लड़की का बोझ नही उठाना चाहती थी, पर वो लोकलाज के चलते बौजी को पालने को मजबूर थी, पर गुस्से से वो दिनभर बौजी को गालियाते रहती थी, बौजी से घर का सारा काम करवाया जाता, बदले में मिलता तो, रूखा सूखा खाना वो भी ,ले पेट चीर ले आपण डायलॉग के साथ। बौजी चुपचाप सब कुछ सहती थी, क्योकिं उन्हें पता था के, जैसा भी है पर उनके लिये सुरक्षित है ये स्थान , बौजी को जो बोला जाता, बौजी वो चुपचाप कर दिया करती ,ठुलईजा के बच्चे भी बौजी को परेशान करते थे। दुखों के बीच पली बौजी अब बडी हो चली थी,ओर उसको बडी होते देख, बौजी की  ठुलईजा इस चिंता में पतली हो रही थी के, बौजी का ब्याह करना पड़ेगा, इसके चलते बौजी की ठुलईजा ओर चिडचिडी हो गई थी, इसलिए अब वो बौजी को ओर परेशान करने लग गई थी। बौजी के लिये उसकी बढ़ती उम्र दुखदाई हो गई थी, इधर बौजी की ठुलईजा का पारा सातवें आसम...