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संदेश

पहाड की पीड़ा - Mountain Pain

पहाड की ईजाओं के नसीब में सिर्फ घर सम्भालना ही नही होता, बल्कि अपने नौजवान बेटों के दूर होने का दर्द भी होता है। पहाड के लिये जिसने भी ये कहावत गढ़ी है, वो कितनी सटीक है की पहाड की जवानी ओर पहाड का पानी पहाड के काम नही आता। जहाँ भी जाओ वहाँ की ईजाओं का ये दुख एक सा दिखाई देता है, अपने बेटों की चिंता करती इजाऐ आपको हर कहीं दिखाई दे ही जायेंगीं। अगर कोई उस शहर से जहाँ उसका बेटा गया है, गाँव आ जाये तो ईजाये दौड़ दौड़ कर उस शख्स से मिलने आ जाती है, मकसद होता है, अपने बेटों का हाल जानने का। मैं भले ही शहर में ही पैदा हुआ पर गाँव से निरंतर जुड़ाव रखा, इस नाते गाँव के लोग मुझे जानते हैं, मैनें तभी इस बात को प्रत्यक्ष महसूस किया है। इन ईजाओं का अपने बेटों से बिछोह का दुख देखकर अत्यंत दुख होता है, क्योकिं मुझे पता है, जब इन ईजाओं के बेटे शहरों में आते हैं तो उन्हें कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, नया शहर, नया काम, ओर अनुभव की कमी उनके रास्तों की जंजीरें बन कर रास्ता रोक देती हैं, तब ईजा का वो बेटा छटपटा उठता है, भूखा प्यासा ओर बेघर वो बेटा, चिंतित हो उठता है की अब न जाने क्या होग...

बच्ची का - Bachi uncle

ओ बच्ची का कहाँ को भाग दौड़ हो रही है रत्ती ब्यान (सुबह सुबह ) ,बच्च दा को टोकते हुये गोपाल दा बोले, सुनते ही बच्ची का पलटे ओर बोले फाव मारने (मरने ) जा रहा हूँ , चलेगा क्या। गोपाल दा खितखित हँसते हुये बोले, वहाँ तुम ही जाओ, पर चाय पीकर जाना आ जाओ।  फटा जूता, सिर पर टोपी, ढीली सी पतलून ओर ऊपर फटी सी स्वेटर पहने बच्ची का ,चाय का नाम सुनते ही बड़ी ठसक से खुट में खुट (पाँव में पाँव ) रखकर आँगन में आकर बैठ गये, ओर जोर की आवाज लगा कर बोले , ओ ठुल ईजा (ताई ) गुड जरा ठुल ठुल लाये (गुड जरा बड़ा बड़ा लेकर आना ) , कम मिठ में पी जस न लागीन (कम मीठे में चाय पी जैसी नही लगती ), अक्रिम (अजीब )स्वाद हो जाता है चाय का। बच्ची का गाँव के हर घर को अपना घर सा ही मानते थे, इसके चलते ही वो इस तरह की बात अधिकारपूर्ण बोल जाते थे। बच्ची का जवाब देने में बड़े हाजिर  थे, लोग मजाक करते तो बच्ची का ऐसा जवाब देते की सामने वाला खिसिया कर रह जाता, वैसे बच्ची का थे सीधे व सरल इंसान । गाँव में बस उनकी टूटा फूटा मकान था, बाकि जमीन जायदाद तो उनके रिश्तेदार खा गये थे,जब वो बहुत छोटे थे, उनके पिता का देहांत...

पहाडी चिडिया - Mountain Bird

रेबा ,गाँव में उसे सब इसी नाम से पुकारते थे, वैसे उसका नाम ठहरा रेवती। किशन दा की चैली रेबा को पहाड़ से बड़ा लगाव था,जब उसके साथ की लड़कियाँ हल्द्वानी शहर की खूबियों का बखान करती तो, रेबा बोल उठती, छी कतुक भीड़ भाड़ छ वाँ, नान नान मकान छ्न, गरम देखो ओरी बात, मैं कें तो बिल्कुल भल न लागण वाँ,मैं कें तो पहाड भल लागु, ठंडी हौ, ठंडो पाणी, न गाडियों क ध्वा, ना शोर शराब ,पत्त न की भल लागु तुमुके हल्द्वानी, मैं कें तो प्लेन्स बिल्कुल भल न लागण। रेबा पहाड़ की वो चिडिया थी, जिसकी जान पहाड़ में बसती थी, उसके लिये पहाड़ से अच्छी जगह कोई नही थी, रेबा सुबह जल्दी उठ कर ,सबके लिये चाय बनाती फिर स्कूल जाती, वहाँ से आकर घर का छोटा मोटा काम निपटाती, ओर फिर पढ़ने बैठ जाती,ये रेबा की दिनचर्या का हिस्सा था। रेबा अब इन्टर कर चुकी थी, किसन दा अब उसके लिये लड़का ढूँढने लग गये थे, ताकि समय पर उसके हाथ पीले हो सके।पर रेबा चाहती थी की उसकी शादी पहाड़ में ही कहीं हो, उसने अपनी ईजा को भी बोल दिया था की ,तू बाबू थें कै दिये मेर ब्या पहाड़ में ही करिया, भ्यार जण दिया। इधर किसन दा रेबा के लिये...

पश्चाताप - remorse

देबुली को अपने घर आये 6 महीने बीत गये थे, छोटी सी बात पर वो अपनी सास से झगडा कर बैठी थी, ओर अपने पीहर आ गई। कभी इस घर की लाडली देबुली को यहाँ आकर अहसास हुआ की, अब वो पहले जैसी लाडली नही रही यहाँ,अब उसके घर वालों का व्यवहार उसके प्रति रूखा रूखा सा था,पर देबुली क्या करती, उसके पास ओर कोई चारा भी नही था। अब देबुली को अपना ससुराल याद आ रहा था, कैसे वो इकलौती बहु होने के कारण पूरे घर पर राज करती थी, बस थोडा़ सास ही तो टोका टोकी करती थी, बाकी तो सब ठीक ही थे। उसे इस बात पर पछतावा हो रहा था की, छोटी सी बात पर उसने घर छोड़ने का फैसला ले लिया। देबुली अब वापस अपने घर जाना चाहती थी, वो घर जहाँ उसकी पूछ थी,पर अब जाये तो  जाये कैसे, वो ही तो घर छोड़ कर आई थी। देबुली सारे दिन यही सोचती रही की, कैसे वापस जाऊ, उसे समझ नही आ रहा था की, किस तरीके से उसकी घर वापसी हो। काफी सोचने के बाद उसने तय किया की, चाहे कुछ भी हो जाये,अब वो अपने घर वापस जायेगी। सुबह होते ही उसने पानी का बर्तन पकडा ओर पानी भरने के बहाने निकल गई ओर रास्ते से उसने अपनी सास के नंबर पर फोन किया,ये सोच कर के उनसे ...

कुलोमणि का भुट्टा

कुलोमणी जोशी ब्रहामण कुल में जरूर पैदा हुआ , पर पढ़ाई नही करी ठहरी , ऐसा नही की घर वालों ने स्कूल नही डाला ठहरा , पर कुलोमणी का मन लगे तब स्कूल जाता ना। घर से झोला लेकर रोज निकलता ओर आधे रास्ते से गायब ,कभी ऊँचे डाँडे में टाइम बीता देता तो 'कभी गाड (नदी ) में जाकर मछली पकड़ता रहता ऐसे ही दिन बीता दिये ठहरे ओर रह गया ठहरा अनपढ़।  बोज्यू ने कितनी बार खूब चूटा ( मारा ) भी पर कुलोमणी को नही पढ़ना था सो नही पढ़ा , साथ के सभी ब्रहामण पुत्र पूजा पाठ करवाने लगे पर कुलोमणी को इसकी क ख ग भी नही आती थी।  इधर बोज्यू कभी कभी बोलते साला काहे का कुलोमणी कुल खामणी निकला ये , पता नही कैसे पेट भरेगा , पूजापाठ के काम का तो है नही।  तब कुलोमणी की ईजा बोलती , करेगा कुछ देख लेना , पूजापाठ ना सही तो कुछ ओर करेगा , ऐसा मत बोला करो बल तुम इसको , इकलौता है भाग गया तो क्या करेंगे बल ,  पर कुलोमणी कहाँ भागने वाला था , उसे तो ये पहाड़ नही जाने देते थे।  थोडा ओर बड़ा हुआ तो , समझ आई की कुछ करना पड़ेगा , बोज्यू की पूजापाठ अब कम हो चली थी , इधर उधर ज्यादा भाग नही पाते थे।  पर वो कर...

बौजी ओर गोप्प दा

बौजी गोप्प दा की घरवाली हुईं, बौजी ठहरी एकदम सीधी साधी,पर बहुत दुख देखे ठहरे बौजी ने अपने जीवन में,माँ बाप थे नही, तो ठुलबौज्यू ने पाला था उन्हें, बौजी की ठुलईजा को बौजी फूटी आँख नही सुहाती थी,शायद वो एक ओर लड़की का बोझ नही उठाना चाहती थी, पर वो लोकलाज के चलते बौजी को पालने को मजबूर थी, पर गुस्से से वो दिनभर बौजी को गालियाते रहती थी, बौजी से घर का सारा काम करवाया जाता, बदले में मिलता तो, रूखा सूखा खाना वो भी ,ले पेट चीर ले आपण डायलॉग के साथ। बौजी चुपचाप सब कुछ सहती थी, क्योकिं उन्हें पता था के, जैसा भी है पर उनके लिये सुरक्षित है ये स्थान , बौजी को जो बोला जाता, बौजी वो चुपचाप कर दिया करती ,ठुलईजा के बच्चे भी बौजी को परेशान करते थे। दुखों के बीच पली बौजी अब बडी हो चली थी,ओर उसको बडी होते देख, बौजी की  ठुलईजा इस चिंता में पतली हो रही थी के, बौजी का ब्याह करना पड़ेगा, इसके चलते बौजी की ठुलईजा ओर चिडचिडी हो गई थी, इसलिए अब वो बौजी को ओर परेशान करने लग गई थी। बौजी के लिये उसकी बढ़ती उम्र दुखदाई हो गई थी, इधर बौजी की ठुलईजा का पारा सातवें आसम...

सुन्नपट - Silence

सुन्नपट - Silence धनुली आमा अपने घर के कोने में बिल्कुल अकेली बैठी दिखी तो, मैं उनके हालचाल जानने उनके पास चल दिया, काफी सालों बाद मिलना हुआ, अब काफी बूढ़ी हो चली थी। आमा से आसल कुशल पूछी तो आमा बोली पोथिया अब की आसल कुशल हूँ हम बूड़ा की, बस दिन काटीनी जस्ये तैस्ये। आमा का काफी बड़ा मकान था, या ये कहो की गाँव का सबसे बड़ा मकान धनुली आमा लोगों का था, बड़ा सा मकान, भरा पूरा परिवार था, बरसों बाद आज देखा तो उजाड़ सा हो चुका था, अब इस घर में आदमी के नाम पर ,कोई था तो वो थी बस आमा। आमा के परिवार के सदस्य एक एक करके पलायन कर चुके थे, बड़ा बेटा जयपुर तो छोटा बेटा दिल्ली में अपने परिवार सहित बस चुके थे, नही गई तो बस आमा,क्यों नही गई पूछने पर आमा ने जवाब दिया की, सारि उमर याँ काट राखी, मरण बखत जाबेर की करूँ, ओर उस्ये ले मेर मन न लागुन वाँ, क्याप जस लागु पोथिया, मेर लीजी तो याँई भल भै। आमा का ये जवाब उत्तराखण्ड के अधिकाँश बुजुर्गो का होता है, उनका अपनी जन्मभूमि, अपनी विरासत, अपनी संस्कृति व अपने लोगों से लगाव ,उन्हें अपनी जमीन से दूर नही होने देते। आमा लाख परेशानी के बावजूद भी यहाँ से नही जा...

परुली आमा

परुली आमा के गाँव के ग्राम प्रधान द्वारा, गाँव में कोई विकास नही करवाने से, गाँव काफी पिछड़ गया था, ओर लोग गाँव छोड़ छोड़ कर जा रहे थे,ये देखकर परुली आमा दुखी भी थी ओर गुस्से में भी थी। गाँवों के विकास के लिये सरकार द्वारा गाँवों को काफी पैसा मिलता है ,पर ग्राम प्रधान पता नही क्या करते हैं उन पैसों का ,के गाँव जस के तस दिखते हैं, ओर विकास कार्यो के लिये आई धनराशि खत्म हो जाती है,अगर गाँव में किसी का विकास होता दिखता है तो ,वो है ग्राम प्रधान ,उसके अलावा तो सब जैसे थे, वैसे ही नजर आते हैं। परुली आमा भी ये सब बरसों से देखती आ रही थी, उन्हें गाँव में विकास नाम की चीज भी दिखाई नही देती थी, ऊपर से जैसे ही चुनाव आया तो ,वर्तमान प्रधान ने अपनी पत्नी को चुनाव में खडा करने की घोषणा कर डाली। बस फिर क्या था ये सुनते ही परुली आमा का गुस्सा फूट पड़ा,ओर वो ग्राम प्रधान के घर जाकर बोली, जब तू प्रधान छे, तब तो त्वैल क्या न कर, ओर चुनाव आते ही, अब तू अपण स्याणी कें ठाड़ करण छ, थोड़ा शरम छ की नहा,या बस पैंस कमौण छ,आमा गुस्से में प्रधान को बोली, देख रे किशन भौत है गो, यौ बार कोई ओर बनौल प्रधान, ये ...