दीवाली का दिन था ,ओर गाँव का बाजार दीवाली के सामानों से सज चुका था ,लोग बाग अपनी अपनी हैसियत के अनुसार खरीददारी कर रहे थे। अगर कोई कुछ नही खरीद रहा था तो वो था दीवान दा ,काफी दिनों से लकड़ी के चिरान का काम बंद था ,इसके चलते दीवान दा बेरोजगार हो चला था। दीवान दा को समझ नही आ रहा था की आखिर वो करे तो करे क्या ,चलो राशन पानी तो उधार फिर भी मिल जायेगा ,पर बच्चों के लिये पटाखे ओर कपड़े कौन उधार देगा ,दो साल से कपड़े भी तो नही बना पाया था वो बच्चों के लिये। दीवान दा को ये दीवाली का त्यौहार जैसे काटने को आ रहा था ,घर में दिया तक जलाने को तेल नही था ,धूप बास भी कैसे उठाता ,लगडा ,पू ,बड बनता था वैसे तो हर बार ,बच्चों को लगड व पू बड़े पसंद थे। बच्चों का चेहरा सामने आते ही ,दीवान दा का कलेजा मुँह को आ रहा था ,दिमाग काम नही कर रहा था ,ऐसी स्तिथि उसके सामने कभी नही आई ठहरी ,उसे समझ नही आ रहा था की ,कल वो दीवाली का त्यौहार मनायेगा कैसे। उसे सबसे ज्यादा ग्लानि इस बात से हो रही थी की ,कल सबके बच्चे पटाखे फोड़ेंगे ओर नये कपड़े पहनेंगे ,ओर उसके बच्चे लोगों का मुँह देखेंगे। दीवान दा कल का सोच ...
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